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आलोचनाएं साहित्य और समाज का पोषण करती है

9 मार्च 2022

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किसी के विचारों को सहज रूप से स्वीकार कर लेना आसान होता है। इससे ना ही मतभेद की स्थिति उत्पन्न होती है और ना ही उनके और आपके सम्बन्धों को कोई आघात या त्रुटि पहुंचती है और आप एक ही दायरे में अपना जीवन जीते है। तो क्या यह सही है?  यदि हम मान ले कि किसी ने भोजन बनाया है और हम उसे ग्रहण कर लिए और उसमें मौजूद कमियों का प्रश्न हमारे भीतर ही रह गया इससे आपने यह तय तो कर लिया कि इससे उसे आघात पहुंचेगा इसलिए हमें चुप रहना ही हमारे लिए उचित है। इस स्थिति में क्या आप उसके साथ न्याय कर रहे है ? नहीं यदि आप उस ब्यक्ति को उसके द्वारा किये हुये कार्य में निहित कमियां बता देते है तो हो सकता है वह उससे अच्छा भोजन बनाये और आपको और रूचिकर लगे।
यही स्थिति हमारे साहित्यिक धरातल पर भी उत्पन्न होती है साहित्य भी हमें हमेशा ग्राह्य और रूचिकर ही पसंद आते है और हम उसे पढ़ते है और उससे जो ज्ञान और रोमांच हमें मिलता है हम उसे स्वीकार करते है। कोई भी साहित्य साहित्यकार के विचारो उसके बुद्धिमत्ता का प्रतीक होता है। 
इस स्थिति में साहित्यकार द्वारा रचित साहित्य पर आलोचना करना मतलब उसके साहित्य में उन दोषों को भी प्रदर्शित करना है जो कदाचित उसमें होने चाहिए अन्यथा कुछ ऐसे तथ्य जो न भी होने चाहिए। आलोचना करने का अर्थ हम कदाचित यह न मान ले सिर्फ किसी की कमियां निकालना बल्कि इसका अर्थ साहित्यिक धरातल पर अर्थात उसके गुणों सहित दोषों का निरूपण। अगर हम सही मायनों में स्वीकार करे तो आलोचना हर क्षैत्र में एक बेहतर समाज का निर्माण करने में सहायक होती है। आलोचना करने से पूर्व यह निश्चित कर लेना उचित होता है कि आपका उस क्षेत्र के प्रति पूर्ण ज्ञान हो।
आलोचना तो युग पर्यन्त से होती रही है और इससे समाज हमेशा सुदृण ही बना है कारण ही में कार्य का निर्माण होता है यहां कार्य का अर्थ यह मान ले कि यदि कोई स्थिति उत्पन्न हुयी है तो उसके निवारण के बाद यह निश्चित रूप से हमें सुख ही प्रदान करेगा। किसी कार्य या वस्तु की अगर हम कमियां जान ले तो हम और सही तरीके से उस कार्य को करने का प्रयत्न करेंगे और सफल होंगे जिससे हमारा मन मस्तिष्क ह्दय समतुल्य भाव से सुख की अनुभूति प्राप्त करेगा। यहां कबीर दास का एक दोहा इस तथ्य को बहुत ही सार्थकता प्रदान करता है निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय
            बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाव
आलोचना के कई रूप है सामाजिक आलोचना, साहित्यिक आलोचना, धार्मिक आलोचना, ब्यक्तिगत आलोचना इत्यादि यहां तक देखा जाये तो ईश्वर स्वरूप पर भी आलोचनाएं और टिप्पडियां हुयी किन्तु उन आलोचनाओं का जो भी रूप सामने आया वो फलदायी ही हुआ उदाहरण के लिए रामायण महाकाब्य के लिए कुछ आलोचको ने ये कहां कि राम तो ईश्वर थे उन्हे इतना दुःख उठाने के लिए जंगल क्यो भटकना पड़ा किन्तु राम का वन जाना निश्चित था क्योंकि उनके द्वारा अनेको का उद्धार करना था। साहित्यिक लेखन पटल पर आलोचना का प्रादुर्भाव तो मध्यकाल रीति का से ही हो गया था किन्तु आधुनिक युग में भारतेन्दु युग से ही इसका पूर्ण प्रारम्भ माना जा सकता है और समय पर्यन्त आलोचना एक विधा के रूप धारण कर सामाजिक बौद्धिक धरातल पर स्थापित हो गया।
इस तरह देखा जाय तो किसी के प्रति आपके कमियों का ज्ञान ही आपको एक सुन्दर सुदण भविष्य निर्माण करने में सहायक सिद्ध होती है।









                                           





गुण दोष युक्त समीक्षा करना है।

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