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लघुकथा, इंसानियत

10 मार्च 2022

19 बार देखा गया 19
उसकी आंखे उस रात भी नहीं सोई , दूध की चांशनी से सराबोर वह रात आज भी सुगना को उसकी याद दिला दिला देती है। गठीला शरीर रस्सी जैसी बांहे धसी हुयी तेज आंखे रोबदार मूंछे जिसे देखकर एक आम आदमी का रूप कम एक कस्साई का रूप सामने आ जाता था। अमरपाल था भी उतना क्रूर जमिंदारी का रोब उसके सिर इस तरह चढ़ा हुआ था कि पूरे गांव के लोग अमरपाल के अत्याचारों से दुःखी थे। एक सुगना ही ऐसी थी जिसे अमरपाल से अजीब सा लगाव था, जब भी सुगना अमरोही के बगीचे में जाती गुलमोहर के ताजे फुलों का गुच्छा चुरा कर ले आती और अपने खाट के सिरहाने रखकर निहारती रहती घंटो। जब कभी भी सुगना का सामना अमरपाल से होता अमरपाल अपनी झाड़ सुगना पर बरसा देता "क्यों री सुगना तेरा पिछला बाकी है कब चुकायेगी जिस दिन तेरे बाल नोचकर मारूंगा उस दिन तेरी अकड़ ढीली हो जाएगी", सुगना उसकी तरफ सकुचायी आंखे लेकर मुस्कुरा देती है..देख कैसी बेशर्मो की तरह हंस रही है "इन लोगों को तो भूख से मरता छोड़ देना चाहिए" अमरपाल बड़बड़ाता हुआ आगे निकल जाता है।
सुगना थी तो गरीब पर रूप की धनी थी दुधिया रंग बिल्लौरी आंखे जिसे देख कर गांव के गिने चुने लड़के उस पर अपनी नजरे गडाये रहते थे। सुगना थी एकदम सीधी गाय सी एक बाप के अलावा सुगना का कोई था भी तो नही , मां तो बचपन में उसे छोड़कर कही चली गयी थी और बात भी ऐसा निहायत ही आलसी यहां वहां गली मुहल्लों में पड़ा रहता। सुगना ही रोटी पानी का जुगाड़ करती। सुगना जब भी गांव में निकलती उसे अकेला देखकर गांव के लड़के उसे छेड़ने लगते ,उह दिन भी ऐसा ही हुआ था पर भला हो उस अमरपाल का उसके डर से लड़के वहांं से भाग गये थे "क्यों री सुगना इधर कहां जा रही अंधेरे में,अकेले क्यों निकलती है। तेरा बाप कहां है ,दो दिन में सूद ब्याज के पैसे नही दिये तो घर के साथ खेत भी छीन लूंगा कह देना,सुगना हां में सर हिला देती है।
सुगना हर रोज अमरोही के बगीचे में जाती और गुलमोहर के फूलों का गुच्छा अपने सिरहाने रख कर रोज की तरह निहारती और अमरपाल की स्मृतियों में डूब जाती। उसे तो जैसे सूद व्याज की चिंता ही नहीं रहती। जहां सुगना अमरपाल के सुनहरे सपने सजा रही थी वही उसका निकम्मा बाप उसे किसी के हांथो बेच दिया था । गांव में यह खबर फैल गयी सुगना को ले जाने के लिए आ गये थे सुगना का रो रोकर बुरा हाल था उसे जोर जबदर्स्ती करके बैलगाड़ी में बैठा लिये जैसे ही बैलगाड़ी आगे बढ़ी एक बडे़ लाठी ने बैलगाड़ी का रास्ता रोक लिया "कहां ले जा रहे हो इसे ,नीचे उतारो...देखो हमने इसे खरीदा है अमरपाल ने जांघ का सहारा देकर सुगना को नीचे खीच लिया लाठियां चलने लगी अमरपाल तब तक लड़ता रहा जब तक कि वे वहां से भाग नही गये। पत्थर सी बांहे उस दिन लहुलूहान हो गयी थी उस दिन अमरपाल ने सच में सुगना को देखा था। उसी दिन अमरपाल ने सुगना का गौना तय कर दिया पैसे देकर सूद व्याज तक याद नही याद थी तो बस गांव की मर्यादा और लाज, सुगना चली जा रही थी लाल जोडे़ में अमरपाल गांव के मोड़ से देखता रहा दूर जाती बैलगाड़ीयों को जो कुछ समय पश्चात धूमिल पड़ने लगी थी। सुगना अमरपाल के यादों में खोयी थी चांद की दूधिया रोशनी चारो तरफ पसरी हुयी थी ,कमरे का दरवाजा खटकता है कमरे की रोशनी धीमी हो जाती है और अमरपाल की यादें सुगना के ह्दय में सदा के लिए समा जाती है।





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