तुम्हारे अक्श में मैने खुद को जाना है
तुम्हारी बनकर ही ़खुदको पहचाना है
मैं निःशब्द थी हर बार खुद के लिए
तुम्हे पाकर ही मैने खुद को अपना माना है।
लिपटी रहती थी हर शाम मेरी तन्हायी में
लौटी थी हर बार गर्दे रूसवाई में
तुम थे कही ये सोच के समझाती थी
तुम्हारे लिए हर बार एक ख्वाब सजाती थी।
मेरी आँखों में थी, एक तस्वीर धुधलायी सी
वही थे तुम जो अब तक न समझ पायी थी
उड़ती थी खुले पंख आकाश और अमराई में
तुम मिले यूं बेबाक की आगोश में सिमट आयी हूँ।
खिल उठा है मेरे चाहत का गुलिश्ता खुदगर्ज
तुम्हे पाकर मैं शायद सबको भूल आयी हूँ
तुम्हारी तस्वीर को आइने में छुपा लायी हूँ
देख कर आइने में खुद को, तुम्हे देख पायी हूँ।