विद्यानन्द अपनी सुबह की चाय लेकर जैसे ही कुर्सी पर बैठे थे कि । उन्हें अचानक से याद आया कि उनका छोटा बेटा नीतिन अपनी पढ़ाई पूरी करके दिल्ली से आज ही लौटने वाला है। विद्यानन्द ने जल्दी से अपनी सुबह की चाय को दो तीन घूट में ही पूरा कर झटपट स्टेशन जाने के लिए तैयार हो गये थे। वैसे तो उनका बेटा साल में एक दो बार घर वापस आ ही जाता था। पर इस बार वह दो साल में पहली बार घर लौटा था। इस बार विद्यानन्द के बेटे नीतिन ने एक बार भी यह जिद्द नही की कि वह आकर दो चार दिन भी रूकेगा। विद्यानन्द की पत्नी सुरेखा ने इस बार विद्यानन्द से कई सवाल किये। कि नीतिन का आना इतनी जल्दी में और जाना भी जल्दी से मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है। नीतिन जैसे अजनबी जैसा व्यवहार कर रहा है। विद्यानन्द ने सुरेखा को यह कहकर बात टाल दिया कि, अरे बच्चे बडे़ होकर थोड़ी अपनी जिम्मेदारीयों के प्रति एकाग्र हो जाते है। हो सकता है नीतिन भी हमारे बारे में ही कुछ सोच रहा हो। सुरेखा ने विद्यानन्द के बातों पर सहमती तो जतायी पर वह फिर से एक सवाल विद्यानन्द के सामने रख दी। ...हां पर नीतिन ने तो इस बार मेरे तबीयत के बारे में भी कुछ नहीं पूछा। मुझे तो नीतिन का व्यवहार कुछ अजीब सा ही लगा। विद्यानन्द ने सुरेखा को फिर से सात्वना दी....सुरेखा तुम माँ हो इसलिए इतना कुछ सोच रही हो। विद्यानन्द जल्दी से स्टेशन पहुँचे और नीतिन का इंतजार करने लगे। नीतिन को देखते ही विद्यानन्द कुछ असमंजस में पड़ गये। ये तो नीतिन ही है। पर साथ में कौन है ? नीतिन पास आकर विद्यानन्द के पांँव छुआ पर साथ आयी हुयी महिला वैसे ही मूक बनी हुयी खड़ी रही। नीतिन ने आँखो से इशारा करके उसे विद्यानन्द के पाँव छूने के लिए कहा तब कहीं जाकर उस औरत ने विद्यानन्द के पाँव छूए। विद्यानन्द उसके बारे में नीतिन से कुछ पूछते इससे पहले ही नीतिन ने स्वयं ही उस औरत का परिचय देते हुए। विद्यानन्द को बताया कि यह नेहा है आपकी बहू। विद्यानन्द आवाक से होकर कुछ पूछ नहीं पाये। घर लौटने पर सुरेखा ने भी वही प्रतिक्रिया दिखायी। इस पर नीतिन ने साफ तरीके से यह कह कर बात को टाल दिया कि पिताजी शादी चाहे आप करते या मैंने खुद किया दोनों का अर्थ तो एक ही है। वैसे भी नेहा मुझे पसंद आयी तो मैने सोचा आपको क्या बुलाना कम बजट में शादी भी कर ली। सुरेखा और विद्यानन्द दोनो फिर से इस बात पर कोई विरोध न जताकर मान भी गयें। जब रात को सब लोग खाने के लिए इकट्ठा हुए। तो उस समय नीतिन की पत्नी नेहा वहाँ उपस्थित नहीं हुयी। सुरेखा को पूछने पर नीतिन बात को बदल कर कुछ और ही बाते कर करने लगा....माँ नेहा ऐसे माहौल में पली बढ़ी है कि उसे यहाँ पर रहना कुछ अकाम्फटेबल सा लग रहा है। सुरेखा नीतिन के इस जवाब पर कहती है कि बेटा तुमने तो यही कहा था कि पढ़ाई पूरी होने के बाद मैं आपके साथ गाँव में ही रहूंगा। और अगर दूर रहना पड़ा तो सब साथ में ही रहेंगे। नीतिन...हां माँ तब मैं अकेला था पर अब नेहा के मुताबीक ही मुझे करना पड़ता है। और नीतिन जल्दी से खाना खा कर वहां से चला जाता है। सुरेखा विद्यानन्द से कहती है मै न कहती थी कि नीतिन बदल गया है। विद्यानन्द फिर भी नीतिन को कुछ न कहकर सुरेखा को ही समझाते है। सुरेखा यही तो जीवन है कभी सब अपन साथ रहते है। और कभी अलग हो जाते है। यही जिंदगी है। यही जिंदगी के धूप छाँव है जो कभी हमें सुकून देते है कभी उलझनो में ड़ाल देते है।