तन पर वसन नहीं रहते,
सिर ढकने को नहीं घर अपना।
कैसे उत्सव मनाएं आजादी,
कैसे सोचे उड़ने का सपना।।
दीन मनुज की पीड़ा का,
इस दुनिया में कोई मोल नहीं।
जो इनका दर्द समझ सके,
इस दुनिया में ऐसा झोल नहीं।।
हक इनका छीन का रहे हैं,
दरबारों के सरदार यहां।
फुटपाथ पर अन्न ढूंढते ये,
वह आजादी बसती है कहां।।
हर तरफ चीख पुकारें है,
भूखे बच्चे सो जाते हैं।
कचरे में ढूंढ़े भविष्य मासूम,
झूठी पत्तल चट जाते हैं।।
सर्दी गर्मी बरसाते ,
असहनीय दर्द दे जाती है।
आंखें नम हो जाती जब ,
जिंदगी ठोकरें खाती है।।
हर तरफ सेवा का झंडा फहराते,
यहां तक उनकी क्या पहुंच नहीं।
मानवता की रक्षा हो जाये,
ऐसी उनकी सोच नहीं।।
शिक्षा की सोचें ये कहां से,
जो अन्न वसन को तड़प रहे।
मजबूर होकर दुनिया में,
दुनिया के दर्द जन झेल रहे।।
जब भविष्य देश के धरती पर,
फटेहाल हो घूम रहे।
घूसखोर और भ्रष्टाचारी जन,
धन की गद्दी पर बैठ रहे।।
जब देश दीनता नहीं बसती,
मंदिर के बाहर भिखारी क्यों बैठे।
क्यों हक छीनकर निर्धन का,
ये देश के गद्दार क्यों बैठे।।
पर्णकुटी की पीडा का,
मैं वर्णन नहीं कर सकता हूं।
जब लिखे लेखनी दर्द दीन का,
लिखते-लिखते मैं थकता हूं।।
ईश्वर के दान के धन से,
क्या जन रक्षा नहीं हो सकती।
जो लूट देश को भाग रहे,
उनकी सम्पत्ति जब्त नहीं हो सकती।।
जो धन मिले घोटालों का,
उसे सार्वजनिक क्यों करते।
जो पर्णकुटी में बसते हैं,
उन्हें घर की व्यवस्था क्यों नहीं करते।।
फांसी उनको क्यों नहीं होती,
जो हक दीन का खाते हैं।
कारागृह में दोषी को,
क्यों वी आई सुविधा दिलाते हैं।।