बसती हूं अब भी गांवों में,
लोग मुझे अपनाते हैं।
तीज और त्यौहारों पुरवा(गांव)जन,
मेरा रंग दिखाते हैं ।
अभी भी जीवित हूं रिश्तों में,
छोटे बड़े का सम्मान यहां।
मेरी जान निकली शहरों में,
थोड़ी सी सांस बची है यहां।।
ज्यादा सांसे बची नहीं अब,
लोग जमीर को बेच रहे।
निज हित की खातिर मेरे प्यारे,
कौड़ी के दाम मुझे बेच रहे।।
मैं चाहती हूं जीना मेरे देश में,
मुझे संभालों तुम यारो।
गंदी हवा मत घुलने दो टोला(गांव) में,
शहरों की हवा रोको यारों।।
खुशियां कितनी होती उपवन में,
हर डाल पर फूल खिले रहते।
भंवरों की खुशियां अनुपम थी,
हर डाल डाल मधुकर रमते।
आज उदास हो गई चौपालें,
कुछ शेष बचा है जो निभा रहे।
जर्जर बातों में दम नहीं दिखता,
पूर्वजों के वचन निभा रहे।।
होली में रंग होता गहरा,
दीवाली दीपों भरी होती।
राखी बंधन निभाने में,
कभी भी भूल नहीं होती।।
प्रकृति के हर रूप की पूजा,
होती थी यहां की गलियों में।
हर जन जोश उल्लास भरा,
प्रेम दया करुणा रखता था दिल में।।
अब पुरवा में कुछ रंग शेष,
अवशेष मिलते खण्डहरों में।
जो दर्शकों के दिल लुभाते बस,
ना रंगता जन अब उस रंग में।