आवारा मन की आवाज़....!
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मैं आवारा हूँ, ये आवारा मन की आवाज़ है
कालकोठरी से भागा, जैसे ये सोया साज़ है
दिशाहीन कोरे पन्नों सा, आसमान का बिखरा तारा
तपोभ्रष्ट का हूँ मैं मनीषी, घूमूँ बनके बंजारा
डूबा खारे सागर में, तट की रेतों से डरा-डरा
जुड़-जुड़ के भी टूट रहा, लहरों से मैं घिरा-घिरा
सीप हूँ फिर भी, मैं मुक्ता को तरस रहा
मोतियों की माला को, आँसुओं से पिरो रहा
सड़के सूनी भटक रहा हूँ, श्वानों की आवाज़ सा गर्दिश में अम्बर पर चमकूँ, बादशाह के ताज सा
ज्वालाओं से कुंदन निखरे, कोयलों में हीरक बिखरे
चंद्र समान गगन में विचरूँ, लेके रवि का ताप सा
मैं आवारा हूँ, ये आवारा मन की आवाज़ है
कालकोठरी से भागा, जैसे ये सोया साज़ है
रक्तिम टेसू की डाली सा, उलझा-उलझा मेरा मन
आँखों में है आग फिर भी, पलकों में पलते सपन
हम तो आतप ही हृदय हैं, दावानल में जलते हैं
आशाओं के दीप जला, जग को रोशन करते हैं
बार-बार ठोकर मारी, हमको बस हालात ने
साथ छोड़ जा बैठा जैसे, गायक के आलाप ने
छिन्न-भिन्न हो उठे साज़ सब, रागों की बारात में
बाँसुरी की तान रूठी, घात किया आवाज़ ने
आवारापन बनके गीत, कलियों में जा बसते हैं
सूनेपन के तम को भगा, नई चाँदनी रचते हैं
गीतों को सुन सावन झूमे, बूँदों के मोती को चूमे
बहा रही मदिरा मादकता, फूलों के शबाब में
मैं आवारा हूँ, ये आवारा मन की आवाज़ है
कालकोठरी से भागा, जैसे ये सोया साज़ है
–कुँवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह
*यह मेरी स्वरचित रचना है |