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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

3 मार्च 2016

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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं,

और क्या जुर्म है पता ही नहीं।

 

इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं,

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं|


ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है

दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।


सच घटे या बड़े तो सच न रहे,

झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।


ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ

ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।


जिसके कारण फ़साद होते हैं

उसका कोई अता-पता ही नहीं।


धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून

अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं।


कैसे अवतार कैसे पैग़म्बर

ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं।


उसका मिल जाना क्या, न मिलना क्या

ख्वाब-दर-ख्वाब कुछ मज़ा ही नहीं।


जड़ दो चांदी में चाहे सोने में,

आईना झूठ बोलता ही नहीं।


अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है

‘नूर’ संसार से गया ही नहीं।

कृष्ण बिहारी 'नूर'

एकता तिवारी

एकता तिवारी

वाह क्या बात कही है

3 मार्च 2016

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नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद

3 मार्च 2016
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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

3 मार्च 2016
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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या जुर्म है पता ही नहीं। इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं| ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।सच घटे या बड़े तो सच न रहे, झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।जिसके कार

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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ

3 मार्च 2016
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आग है, पानी है, मिट्टी है

3 मार्च 2016
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तमाम जिस्म ही घायल था

3 मार्च 2016
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