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तमाम जिस्म ही घायल था

3 मार्च 2016

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तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था

कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा था


बस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था

मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा था


वो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे

हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा था


कुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं

हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा था


ख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जाते

तपे हुए खरे सोने का भाव ऐसा था


हैं दायरे में क़दम ये न हो सका महसूस

रहे-हयात में यारो घुमाव ऐसा था


कोई ठहर न सका मौत के समन्दर तक

हयात ऐसी नदी थी, बहाव ऐसा था


बस उसकी मांग में सिंदूर भर के लौट आए

हमारा अगले जनम का चुनाव ऐसा था


फिर उसके बाद झुके तो झुके ख़ुदा की तरफ़

तुम्हारी सम्त हमारा झुकाव ऐसा था


वो जिसका ख़ून था वो भी शिनाख्त कर न सका

हथेलियों पे लहू का रचाव ऐसा था


ज़बां से कुछ न कहूंगा, ग़ज़ल ये हाज़िर है

दिमाग़ में कई दिन से तनाव ऐसा था


फ़रेब दे ही गया ‘नूर’ उस नज़र का ख़ुलूस

फ़रेब खा ही गया मैं, सुभाव ऐसा था

कृष्ण बिहारी 'नूर'

प्रियंका

प्रियंका

बहोत अछा

9 मार्च 2016

एकता तिवारी

एकता तिवारी

अति सुन्दर !

3 मार्च 2016

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नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद

3 मार्च 2016
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नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद।वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद।मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता ख़ुद को,किसी की चाह न थी दिल में, तिरी चाह के बाद।ज़मीर काँप तो जाता है, आप कुछ भी कहें,वो हो गुनाह से पहले, कि हो गुनाह के बाद।कहीं हुई थीं तनाबें तमाम रिश्तों की,छुपाता सर मैं कहाँ तुम से रस्म-ओ-र

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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं

3 मार्च 2016
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ज़िन्दगी से बड़ी सज़ा ही नहीं, और क्या जुर्म है पता ही नहीं। इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं, मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं| ज़िन्दगी! मौत तेरी मंज़िल है दूसरा कोई रास्ता ही नहीं।सच घटे या बड़े तो सच न रहे, झूठ की कोई इन्तहा ही नहीं।ज़िन्दगी! अब बता कहाँ जाएँ ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं।जिसके कार

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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ

3 मार्च 2016
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इक ग़ज़ल उस पे लिखूँ दिल का तकाज़ा है बहुत इन दिनों ख़ुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत रात हो दिन हो ग़फ़लत हो कि बेदारी हो उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानीकभी दरिया नहीं काफ़ी, कभी क़तरा है बहुत मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह मैं ने पत्थर की

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आग है, पानी है, मिट्टी है

3 मार्च 2016
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आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है, मुझ में और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में I अब तो ले-दे के वही शख़्स बचा है मुझ में, मुझ को मुझ से जुदा कर के जो छुपा है मुझ में I मेरा ये हाल उभरती हुई तमन्ना जैसे, वो बड़ी देर से कुछ ढूंढ रहा है मुझ में Iजितने मौसम हैं सब जैसे कहीं मिल जायें, इन दिनों कै

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तमाम जिस्म ही घायल था

3 मार्च 2016
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तमाम जिस्म ही घायल था, घाव ऐसा था कोई न जान सका, रख-रखाव ऐसा थाबस इक कहानी हुई ये पड़ाव ऐसा था मेरी चिता का भी मंज़र अलाव ऐसा थावो हमको देखता रहता था, हम तरसते थे हमारी छत से वहाँ तक दिखाव ऐसा थाकुछ ऐसी साँसें भी लेनी पड़ीं जो बोझल थीं हवा का चारों तरफ से दबाव ऐसा थाख़रीदते तो ख़रीदार ख़ुद ही बिक जा

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