दो सौ रुपये बहुत है, एक बोतल तो आ जाएगी और कुछ रात के खाने का इंतजाम हो जाएगा। वह एक शराब की दुकान के पास बैठा था। ‘‘ले अब्दुल तुम्हारी बोतल। अब्दुल तू जो कमाता है उससे शराब पी लेता है। देख मैं तेरे हाल को देखकर कहता हूं, इतनी मत पिया कर, इक दिन यूं-ही किसी गाड़ी के नीचे आ जाएगा पता भी नहीं चलेगा। शहर के किसी नाले में पड़ा मिलेगा’’--वह दुकानदार कहता है। ‘‘ यही तो मैं चाहता हूं इस जिंदगी से, कमबख्त सांसों का कर्ज है, पता नहीं कब इससे निजात पाउूंगा’’--अब्दुल कहता है।
अब्दुल की दोनों टांगे नहीं थी। चार पहिये वाले पट्टा गाड़ी पर जिंदगी का सफर तय करता था। दिन भर इसी के सहारे इधर-उधर एक कटोरा लिए हाथ मेें घूमता रहता था। आते-जाते राहगीर उसपर तरस खाकर कुछ न कुछ उसके कटोरे में डाल जाते थे। वह दिन भर शहर की सड़कों , गलियों में घूमता रहता था। रात होने पर जहां किसी फुटपाथ पर, रेल स्टेशन या बस स्टेशन में कहीं जगह मिल जाती, तो सो जाता था। इस शहर में ऐसी ही उसकी जिंदगी थी। कुछ दुकान वाले, चाय के खोखे वाले अब्दुल को जानते थे और अब्दुल पर तरस खाकर मदद भी कर देते थे। ऐसे ही रेलवे स्टेशन के पास के एक मुहल्ले में एक दुकानदार ने अपनी दुकान के पास एक छोटी सी दुकान अब्दुल को रहने के लिए दे दी थी और बिस्तरा भी लगा दिया था, जहां गाहे-ब-गाहे ही अब्दुल होता था। यहां आस-पास के दुकानदार भी अब्दुल को कई बार पहनने को कपड़े और खाने को भोजन दे दिया करते थे, लेकिन अब्दुल स्वाभिमानी था। वह अक्सर एक गीत गुनगुनाता रहता था। अपनी आवाज का सुरों से तालमेल बैठाने की कोशिश करता था; उसे लगता था कि उसमें गायन की बेहतर कला है, इसलिए लोग खुश होकर उसे ईनाम दे जाते हैं और यही उसकी रोजगारी है।
अब्दुल छोले- भटूरे, कचौरी, समौसा बेचने वाले आनन्द रेहड़ीवाले का इंतजार कर रहा था। वह रोज उससे कुछ खाने को सामान लेता था। तभी अब्दुल ने उसे आता देखा। ‘‘लो अब्दुल चाचा आज तुम्हारे लिए समोसे पैक कर रखे हैं।“ वह रेहड़ी वाला अब्दुल को उसका सामान देते हुए कहता है। ‘‘चाय पियूंगा मैं, एक कप पिला देे।’’ अब्दुल कहता है। ‘‘क्या बात है अब्दुल चाचा आज लेकर नहीें आए अपना वो दूसरा सामान।’’ रेहड़ीवाला कहता है। ‘उसके बिना कहां अपनी रात कटेगी। यही तो एक सहारा है।” अब्दुल कहता हैैै। ‘‘अब्दुल चाचा इतना पीना ठीक नहीं तुम्हारे लिए। कब तुम नशे में किसी गाड़ी के नीचे आ जाओगे पता नहीं चलेगा।’ वह कहता है। ‘‘इस शरीर से अब कहां मोह है मुझे; मरने के बाद इसका क्या हश्र हो, इसकी नहीं फिक्र। अब तो किसी तरह छुटकारा चाहता हूं।’’ अब्दुल कहता है।‘‘ अब्दुल चाचा तुम नहीं रहोगे तो यह सड़कें, ये गलियां, ये शहर का शहर वीरान हो जाएगा।’’ वह कहता है।‘‘ हां इन सड़कों का, इन गलियों का इस शहर का शोर दिनभर मेरी सांसों को जगाता है और इनका सन्नाटा लोरियां सुनाकर रात को सुला भी देता है। कितना खुशनसीब हूं ना मैं। ’’ अब्दुल कहता है। ‘‘ अब्दुल चाचा तुम्हारी ये बातें ही तो हमें अच्छी लगती है, अच्छा अब चलता हूं।’’ वह अब्दुल के हाथ से चाय का खाली गिलास लेकर रेहड़ी लेकर आगे बढ़ जाता है।
अब्दुल की दोनों टांगे नहीं थी। चार पहिये वाले पट्टा गाड़ी पर जिंदगी का सफर तय करता था। दिन भर इसी के सहारे इधर-उधर एक कटोरा लिए हाथ मेें घूमता रहता था। आते-जाते राहगीर उसपर तरस खाकर कुछ न कुछ उसके कटोरे में डाल जाते थे। वह दिन भर शहर की सड़कों , गलियों में घूमता रहता था। रात होने पर जहां किसी फुटपाथ पर, रेल स्टेशन या बस स्टेशन में कहीं जगह मिल जाती, तो सो जाता था। इस शहर में ऐसी ही उसकी जिंदगी थी। कुछ दुकान वाले, चाय के खोखे वाले अब्दुल को जानते थे और अब्दुल पर तरस खाकर मदद भी कर देते थे। ऐसे ही रेलवे स्टेशन के पास के एक मुहल्ले में एक दुकानदार ने अपनी दुकान के पास एक छोटी सी दुकान अब्दुल को रहने के लिए दे दी थी और बिस्तरा भी लगा दिया था, जहां गाहे-ब-गाहे ही अब्दुल होता था। यहां आस-पास के दुकानदार भी अब्दुल को कई बार पहनने को कपड़े और खाने को भोजन दे दिया करते थे, लेकिन अब्दुल स्वाभिमानी था। वह अक्सर एक गीत गुनगुनाता रहता था। अपनी आवाज का सुरों से तालमेल बैठाने की कोशिश करता था; उसे लगता था कि उसमें गायन की बेहतर कला है, इसलिए लोग खुश होकर उसे ईनाम दे जाते हैं और यही उसकी रोजगारी है।
अब्दुल छोले- भटूरे, कचौरी, समौसा बेचने वाले आनन्द रेहड़ीवाले का इंतजार कर रहा था। वह रोज उससे कुछ खाने को सामान लेता था। तभी अब्दुल ने उसे आता देखा। ‘‘लो अब्दुल चाचा आज तुम्हारे लिए समोसे पैक कर रखे हैं।“ वह रेहड़ी वाला अब्दुल को उसका सामान देते हुए कहता है। ‘‘चाय पियूंगा मैं, एक कप पिला देे।’’ अब्दुल कहता है। ‘‘क्या बात है अब्दुल चाचा आज लेकर नहीें आए अपना वो दूसरा सामान।’’ रेहड़ीवाला कहता है। ‘उसके बिना कहां अपनी रात कटेगी। यही तो एक सहारा है।” अब्दुल कहता हैैै। ‘‘अब्दुल चाचा इतना पीना ठीक नहीं तुम्हारे लिए। कब तुम नशे में किसी गाड़ी के नीचे आ जाओगे पता नहीं चलेगा।’ वह कहता है। ‘‘इस शरीर से अब कहां मोह है मुझे; मरने के बाद इसका क्या हश्र हो, इसकी नहीं फिक्र। अब तो किसी तरह छुटकारा चाहता हूं।’’ अब्दुल कहता है।‘‘ अब्दुल चाचा तुम नहीं रहोगे तो यह सड़कें, ये गलियां, ये शहर का शहर वीरान हो जाएगा।’’ वह कहता है।‘‘ हां इन सड़कों का, इन गलियों का इस शहर का शोर दिनभर मेरी सांसों को जगाता है और इनका सन्नाटा लोरियां सुनाकर रात को सुला भी देता है। कितना खुशनसीब हूं ना मैं। ’’ अब्दुल कहता है। ‘‘ अब्दुल चाचा तुम्हारी ये बातें ही तो हमें अच्छी लगती है, अच्छा अब चलता हूं।’’ वह अब्दुल के हाथ से चाय का खाली गिलास लेकर रेहड़ी लेकर आगे बढ़ जाता है।