इडियट्स भाग - 4 जारी।
विक्रम बाबू को इतना बोलना था कि नायडू सामने से आती हुई बोली, - "हाँ - हाँ और क्या कीजिएगा, आप जैसे लोग जहाँ रहेंगे न, वहाँ का भट्ठा ऐसे ही बैठ जायेगा।".
"अरे भाई तुमको रह - रहकर हो क्या जाता है. मुझको तो कुछ भी समझ में नहीं आता? " - जल्दीबाजी में विक्रम बाबू फोन काटते हुए नायडू से बोल पड़े।
"मुझको क्या होगा, ऐसे आपको क्या लगता है, आप दूनिया को मदद करने और उसको सुधारने का ठेका ले रखा है। आप एक बात हमेशा याद रखियेगा, जो आदमी इस दूनिया में जितना अच्छा बनने की कोशिश करता है न, दूनिया उसी के साथ उतना ही तमाशा करता है।"
"अरे भाई अब चूप भी हो जा, कोई इतनी रात्रि में हल्ला भी करता है क्या? और वो भी पत्नी, एक बेचारा पति पर । "
" अच्छा ठीक है चलिए, जाकर डेयरी से दूध का एक पॉकेट लेकर आइए। "
" क्या हुआ दूध को? "
" फट गया और क्या होगा। "
" फ्रिज में रख देती। "
" अरे बाबा जाइयेंगा या प्रवचन दीजिएगा। "-इतना बोलकर नायडू भुनभुनाती हुई बेडरूम की तरफ चल दी।
और विक्रम बाबू कुछ पैसे लेकर दूध के लिए घर से बाहर की ओर चलते बने।
अभी रात्रि कोई विशेष नहीं हुई थी। दूकान की ओर जाने वाले रास्ते पर इक्का-दुक्का लोग आ - जा रहें थें। विक्रम बाबू के मकान से आगे बढ़ने पर दो - तीन मकान अर्द्धनिर्मित अवस्था में खड़ा था, जो रात के अंधेरे में कोई भूतहा महल से कम नहीं लग रहा था।
मकान बनाने वाले राज मिस्री, टिमटिमाते हुए बल्ब के नीचे खाना बनाने में व्यस्त दिखाई दे रहें थें। कितनी बेफिक्र की जिंदगी हैं इनकी। दिन भर सब हाड़ तोड़कर काम करतें हैं, और रात्रि में ठर्रा मारकर जिन्दगी का मजे ले रहें होतें हैं।
कुछ दूर और आगे बढ़ने पर, एक बड़ा सा नाला बहती हुई पश्चिमी दिशा की ओर चली जाती है। उसमें मेढ़क रह - रहकर टर्र पीच - टर्र पीच की आवाजे निकालते हुए कूद-फांद मचा रहें थें।
विक्रम बाबू आगे बढ़ते हुए उस स्थान पर पहुंचे, जहाँ से एक रास्ता आगे से होते हुए नेहा के मकान की तरफ जाती है।
नेहा...!
एकाएक ध्यान विक्रम बाबू को उस गली की तरफ मूड़ जाती है। जिस गली में गड़े हुए बिजली के खंभे पर से लटकती हुई बल्ब, और उस बल्ब से निकलती हुई प्रकाश अंधेरे को चिरते हुए चारो और बिखर रहा था।
नेहा कभी-कभी बाइक पर बैठकर, इसी गली का मोड़ तक आ जाया करती थी। और उतरने के बाद मुस्कुराती हुई विक्रम बाबू से बोल पड़ती, - "थैंक्यू सर!"
उसकी बोली में गजब की मधुरता थी। ये मैं नहीं बोल रहा हूँ। ये विक्रम बाबू स्वयं नेहा से बोला करतें थें, - "जानती हो नेहा एक बात की नहीं, तुम्हारी बोली में एक अलग ही किस्म की मिठास है।"
विक्रम बाबू को इतना बोलने के उपरांत नेहा गदगद हो जाती। उसको ऐसा लगता था कि मानों दूनिया का सर्वसुख उसे प्राप्त हो गया है। वह खिलखिलाती हुई बोल पड़ती, - "ये आपको आज का पता चला है सर, ये तो मुझको बचपन से ही मालूम है कि मेरी बोली में एक खास तरह की मिठास है...।"
नेहा की गुरु भक्ति,
देखते-देखते कब इश्क का रूप धारण कर लिया, यह कानों - कानों किसी को कभी पता भी नहीं चला।
लेकिन कुछ खास लोगों को पता चल गया था, वो भी कब, जब नेहा ने अपनी प्रिय सहेलियों को बतायें बिना नहीं रह पायी थी।
लेकिन नेहा... तो ठहरी नेहा ही।
आगे सिर्फ विक्रम बाबू पर ही वह नहीं रूकने वाली थी। वह तो उड़ान भरने वाली एक चिड़िया की तरह थी। कभी इस वृक्ष पर बैठती, तो कभी उस वृक्ष पर बैठ जाती।
ऐसी बात नहीं थी कि विक्रम बाबू नेहा के इस स्वभाव से परिचित नहीं थें। वो अच्छी तरह से जानतें थें। लेकिन बेचारे क्या करतें, वो अपने दिल से मजबूर थें। सबकुछ जानतें हुए भी नेहा को उतना ही तवज्जो देतें, जितना की उनका दिल कहता.... ।
खैर नेहा के बारे में सोचते हुए, स्नातकोत्तर बेरोजगार किराना दुकान के सामने विक्रम बाबू पहूँच गयें। दुकान अभी भी खुली हुई थी।
"एक पाॅकेट दूध देना तो जी।"
-विक्रम बाबू ने दुकानदार की ओर देखते हुए लापरवाही से बोल पड़े।
"कितना वाला सर जी।" - दुकानदार भी कम नहीं था, वह भी कुर्सी पर से मरीजों की तरह उठते हुए बोल पड़ा।
"एक केजी।"
विक्रम बाबू को इतना बोलते ही दुकानदार ने लापरवाही से स्वयं को फ्रिंज तक खींच कर ले गया। फ्रिज को खोलकर उसमें से एक दूध का पॉकेट निकालते हुए बोला , -" एक बात जानतें हैं कि नहीं मास्टर जी...।"
"कौन-सी बात?"
"सामनेवाली गली में जो शर्मा जी हैं न। "-दूकानदार आगे बोलते - बोलते रूक सा गया।
"कौन शर्मा जी... यहाँ पर तो बहुतों से शर्मा जी रहा करतें हैं।" विक्रम बाबू सवालिया नजरों से देखते हुए दुकान- वाला से बोलें।
"वही शर्माजी, जिसकी बच्ची को आप बाइक पर बैठाकर लाया करते थें।"
" राजेंद्रजी की बच्ची नेहा को बारे में...?"
"हाँ भाई हाँ, उसी के बारे में न्यूज है। "-दुकानदार ने विक्रम बाबू के हाथ में दूध का पॉकेट रखते हुए बोल पड़ा।
"क्या हुआ उसे!?"
विक्रम बाबू ने आश्चर्य के साथ धीरे से दुकानदार से बोला।
" क्या सर आप अभी तक उसको नहीं समझ पायें थें, वो भाग गयी न किसी काॅलेज में पढ़ने वाला लड़का के साथ। "
" क्या!!"
-विक्रम बाबू का मुँह खुला के खुला रह गया, इस खबर को सुनकर। विक्रम बाबू को कभी ऐसा नहीं लगता था कि प्रत्येक पेड़ पर बैठने वाली चिड़िया, सचमुच में एक दिन किसी के साथ फुर्र हो जायेगी।
क्रमशः जारी।