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बिजली का बटन

7 सितम्बर 2021

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बिजली का बटण


मित्रो,

 सुविधाऐं या आरामखोरी  ..............

 जैसे जैसे विज्ञान ने प्रगति की और हर मामले में इंसान को सुविधा मिलती गई आदमी आरामखोर / हरामखोर होता चला गया ,

 जैसे जैसे मशीनें आई वैसे इंसान भी मशीन के रूप में ढलने लगा ।

 आज हम अपने घर में ही चारों तरफ सूक्ष्मता से नजर घुमाते हैं तो हम देखेंगे कि हमारा घर ही ऐसी ऐसी तमाम मशीनों से भरा पड़ा है जो हमारे बचपन के घर में उपलब्ध नहीं थी ।

 ज्यादा पीछे न जाते हुए १९६०-१९७०   के दशक में हम जाते हैं तो देखते हैं कि हमारे ग्रामीण परिवेश में मशीनों की क्या स्थिति थी व इंसान की क्या स्थिति थी ।

 मैं बात मेरे हरयाणे की करूंगा क्यूंकि वही मैंने देखा है ,

 बाकि देश में भी कमोबेश यही स्थिति थी .........

 ४-५ भाइयों का संयुक्त परिवार होता था जिनमें से एक या दो तो पक्के तौर पर सेना में होते थे..

 एक - दो ट्रक चालक होते थे ।

 अब इनमें से शादी २ या ३  भाइयों की ही हो पाती थी ,

 मतलब परिवार में २ या तीन महिलाएं ही होती थी,

 और उनके ढेर सारे बच्चे ,

 और दादा दादी ......

 दो बैल

  एक आध गाय 

  उसका बछड़ा बछड़ी 

 दो या तीन भैंस व उनके कटड़ा कटड़ी 

 मतलब हर घर में १५-१७ मनुष्य 

व सात - आठ पशु घर मे 

 होना आम बात थी और आज के परिपेक्ष में देखा जाए तो घर मे सुख वाली मशीन नामक कोई वस्तु नही होती थी ,

 कुछ घरों बिजली तो थी परंतु सिर्फ बल्ब जलाने के लिए ,

 पंखा भी गिने चुने घरों में होता था और बड़ी विलासिता की वस्तु माना जाता था ।

 ये भी कहा जाता था कि पँखा बनावटी हवा फेंकता है और शरीर को खराब करता है  ,

 ऐसे ही खेती बाड़ी में भी मशीन न के ही बराबर थी ,

 जो बड़े किसान थे जिनका खेती का रकबा विशाल था उनके पास तो ट्रेक्टर होते थे पर मंझले व छोटे किसान के लिए ट्रेक्टर आदि एक बड़ा सपना था क्योंकि उस समय तक ट्रैक्टर भी बड़े वाले ही आते थे जैसे बेलारूस ,फोर्सन मेजर ,हिंदुस्तान आदि जोकि न तो छोटे किसान के लिए बने थे और न ही छोटे किसान की औकात के थे ,

 फिर बाद में पहला छोटा ट्रैक्टर आया आयशर गूडअर्थ और ये लेके आया किसानी में क्रांति फिर धीरे धीरे हर किसान के पास आयशर होता चला गया ।

 तो इस ट्रैक्टर क्रांति से इतर अब फिर उसी परिवार पर चलते हैं ,

 परिवार में १५-१७  आदमी व ८-१०  पशु तो दिनचर्या कैसे शुरू होती थी भई ।

 ब्रह्मवेला यानी सुबह के चार बजने से पहले घर के बच्चों को छोड़ कर सभी जन हरि ॐ बोलते हुए खाट छोड़ देते थे ,

 सबके अपने अपने काम बंटे हुए थे तो सब  अपने अपने काम मे लग जाते थे ।

 जैसे घर की औरतें पशुओं ठाण सँगवाती ( मतलब पशु जहां बंधते हों बैठते हों उस स्थान की साफ सफाई गोबर आदि पड़ा है तो उस को एक तरफ करके झाड़ू आदि से उस स्थान को एकदम साफ सुथरा करना )

 फिर धार काढ़णा ( दूध दुहना )

 फिर हाथ वाली चक्की से परिवार व पशुओँ लायक गेंहूँ पीसना , 

 इतने में भोर हो जाती तो कुएं से सिर मटका रख कर पानी लाना ।

 ये तो हुई महिलाओं की good morning भई ।

 युवा व किशोर सुबह उठ कर कन्धे पर लँगोट टांग कर अखाड़े का रुख करते ,

 बुजुर्ग पुरुष अपना हुक्का पानी करने को आग जलाते हुक्का भरते व गुड़गुड़ाते ,

 बुजुर्ग महिला हाथ से दही बिलोती व किसको दही देनी किसको अध बिलोई दही देनी ये सब अलग अलग करते हुए मक्खन निकालती ।

 फिर बच्चे उठते और उठते ही तख्ती पर मुल्तानी पोंतने  लगते ।

 फिर महिलाएं चूल्हा सम्भालती व रोटी बनाती ,

 बच्चे रोटी खाकर स्कूल ,

 हाली (हलवाहा) बैल व हल लेकर खेत ,

 पाली ( चरवाहा ) बाकि सब पशुओं को लेकर जंगल (चरागाह) 

 चले जाते ,

 अब महिला पशुओं के गोबर को इकट्ठा कर एक निश्चित स्थान जिसे हरयाणवी में गीतवाड कहते है हिंदी का मुझे पता नही  ,

 वहां 2 चक्कर या 3 चक्कर लगा कर गोबर पहुंचाती फिर उस गोबर के गोस्से /उपले/कण्डे बनाती ,

 अब महिलाओं को थोड़ी सी बिल्कुल थोड़ी सी मतलब कि आजकल के टीवी सीरियल के बीच मे विज्ञापन आते हैं इतनी सी फुर्सत मिलती कि वो भी रोटी खा लें जरा सा पड़ोसन से बतिया लें सास की बेमतलब की गालियां खा लें ।

 फिर उनको लग जाना चूल्हे पर आग जला कर फूंक मारते हुए रोटी बनाना उस किसान की जो खेत मे हल चला रहा ,

 घर की दूसरी महिला को खेत मे जाकर पशुओं के लिए घास हरा चारा आदि लाना 

 फिर उसे हाथ वाले गंडासे (चारा काटने की मशीन) से काटती ।

 अब खेत मे जो किसान हल चला रहा उसकी पत्नी ही सज संवर कर पूर्ण श्रृंगार के साथ  किसान के लिए बड़े से टोकरे में उसका खाना व बैलों का चारा लेकर जाती थी जिसे हरयाणवी में ज्वारा कहते थे ,

 फिर किसान किसी पेड़ के नीचे खुद व बैलों को बिठा कर खाना खाता था ।

 हाली ( हलवाहा) का खाना भी स्पेशल होता था .......

 घी में डूबी हुई रोटियां ,कोई देशी सब्जी , दही या लस्सी आदि ।

 अब क्या ही मनोरम दृश्य होता था कि पेड़ के नीचे बैठे किसान बैल व किसान की पत्नी ,

 किसान पहले बैलों का चारा उनके सामने रखता है फिर अपना खाना उठाता है और खाना शुरू करने से पहले अपनी घी में डूबी रोटियों में से दो रोटी लेता है और एक एक करके बैलों को खिलाता है एक हाथ से रोटी खिलाता है दूसरे हाथ से बैल का मूँह माथा और सींग सहलाता है और बैल रोटी खा कर किसान का हाथ चाटता है किसान की पत्नी दोनों को मंत्रमुग्ध सी हुई बैलों की जोड़ी व किसान को देखती है ,

 इस दृश्य के सामने दुनिया की हर चीज बेरंगी मेरा ऐसा मानना है ।

 हालांकि शायद आजतक कोई चित्रकार कोई फिल्मकार इस मनोरम  दृश्य का दृश्यांकन या फिल्मांकन नही कर पाया ये दुर्भाग्य नही तो और क्या कहा जाए ।

 खैर इसके बाद किसान पति पत्नी साथ मे खाना खाते थोड़ी बहुत दुख सुख की बतियाते ,

 ये किसान के जीवन के सबसे रोमांटिक क्षण होते थे । 

 हालांकि कभी किसान की पत्नी देर से पहुंचती तो किसान बैलों के लिए इस्तेमाल होने वाले सांटे (चाबुक) से पत्नी जी की तसल्ली से खबर भी लेता ।

 फिर महिला वापिस घर आ जाती और पुनः घर के काम मे जुट जाती,

 बच्चे स्कूल से आ चुके होते तो उनका व बाकी पूरे परिवार का दोपहर का खाना बनाना तो फिर वही चूल्हे में फूं फां ........

 ये सब करते करते पाली ( चरवाहा) पशुओं को ले आता तो पशुओं का उनके निर्धारित स्थान पर बाँधना व सांनी भेणा (नांद में चारा डालना व उसमे खल बिनोले आदि मिलाना ) आदि  ,

 फिर नहा धोकर सज संवर कर साथिनों के साथ गीत गाते हुए 

 उत्साह से शाम के समय के लिए सिर पर दोघड़ ( सिर पर एक मटका उसके ऊपर एक और मटका) लेकर कुएं से पानी लेने जाना .....

  एक चक्कर दो चक्कर तीन चक्कर चार चक्कर अनेक चक्कर घर से कुंआ व कुंए से घर तक लगते ,

 इसी में दिन ढलने लगता और रात के भोजन की तैयारी शुरू होती और फिर से चूल्हे में लकड़ी गोसे/कण्डे/उपले आदि डाल कर  फुं फां .......

 इस सबके साथ साथ सास की गालियां भी विविध भारती के दिल्ली केंद्र की तरह सुनती ही रहती ,

 फिर सबको खिला पिला कर 

 खुद रूखा सूखा सा खाकर खाट में पड़ रहती और बिना किसी कूलर पंखे या वातानुकूलन के झट से नींद आ जाती ।

 मित्रो ये सब जो मैंने उस समय की एक ग्रामीण महिला के काम गिनाये उनमे से बहुत से छूट भी गए हैं क्योंकि पोस्ट को छोटा करने के चक्कर मे कुछ काम छोड़ भी गया मैं ,

 तो मित्रों इतना कठिन व व्यस्त जीवन था और सुविधा के नाम पर शून्य ।

 फिर भी उस समय ग्रामीण जीवन मे न तो भाइयों में आपस के झगडे व  तलाक व आत्महत्या न के बराबर थी , 

 कोई बड़ी बीमारी तो छोड़िए बुखार आदि भी बहुत कम ही होता था ,

 खेतों में काम करते करते प्रसव हो जाना आम बात थी ।

 अब आएं आज के जीवन पर तो आज तो हर मामले में सुख सुविधा चरम पर हैं ,

 एकल परिवार हैं पति पत्नी और एक या दो बच्चे   ।

 पति सुबह ऑफिस बच्चे स्कूल ,

 काम वाली काम करने आती है झाड़ू पोंछा, 

बर्तन भांडे ,

कपड़े धोना ,

 ब्रेकफास्ट,

 लन्च,

 डिनर 

 सब कामवाली करती है ।

 मतलब पत्नी जी लगभग फ्री 

 पूरा दिन टीवी के रिमोट के शोषण के अतिरिक्त कोई काम नही ,

 अब शुरू होती हैं इनकी प्रोब्लेम्स 

 शरीर दर्द ,। 

थॉयराइड ,

 बीपी हाई / लौ, 

 सर्वाइकल ,

 डिस्क स्लिप ,

 घबराहट ,

 सांस फूलना,

 हाथ पैरों में झनझनाहट ,

 सिर में लगातार दर्द,

 हथेली व पैरोँ के पंजों में आग सी लगना ,

 व अनेक स्त्री रोग सम्बन्धित दिक्कतें  

 अभी 2-4 दिन पहले एक मित्र के साथ उनके जीजा जी के घर जाना पड़ा क्योंकि जीजा जी व उनके छोटे भाई का झगड़ा हो गया था और बात आपस मे मार पीट तक हो गई थी ,

 तो जी हम वहां पहुंचे तो बातें शुरू हुई क्या क्या हुआ कैसे कैसे हुआ ,

 यहां तक बात क्यूँ पहुंची .......

 तो काफी सारी बात हुई ,

 और सब बातें होते होते 

 समझ आया कि जीजाजी तो वाकई बहुत ही सज्जन आदमी व छोटे भाई से प्रेम करने वाले व उसका भला चाहने वाले,

 तो छोटे भाई में भी कुछ ज्यादा सी कमी नही लगी ।

 बड़ा भाई मकान के निचले पोर्शन में रहे तो छोटा भाई ऊपर के पोर्शन में ।

 पानी की मोटर दोनो की एक ही है ,

 अब पानी की टँकी में पानी खत्म होने पर पानी भरने के लिए मोटर का स्विच ऑन व टँकी भर जाने पर स्विच  ऑफ कौन करे ये झगड़े का मूल विषय और इस से शुरू होकर अन्य बातों पर बात होते हुए बात मरने मारने तक आ पहुंची ।

 पूरी बात समझ मैंने माथा पीट लिया और मन ही मन कहा ......... 

 

 जमाना धत्त तेरे की ।

 अब इस तमाम पोथी पत्रे से आप क्या समझे आप क्या जाने ये आपका काम ,

 अपन तो अब पोस्ट खत्म कर ही देते हैं यार बहुत हुआ । राजा राम चन्द्र की जय ।

 #संजय_उवाच

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