'बस्तर' कहते हैं कि यहां जो बसता है, तर जाता है। एक तरफ महाराष्ट्र तो दूसरी ओर उड़ीसा, तीसरी ओर आंध्र प्रदेश और चौथी दिशा में छत्तीसगढ़ से घिरे बस्तर अंचल के लोक जीवन, संगीत, परंपराओं, भाषाओं पर वेहद मिश्रित प्रभाव हैं। बस्तर के आदिवासी और लोक कई-कई पीढ़ियों से वनों पर आश्रित रहे और उनके जीवन में भी इसी तरह की नैसर्गिकता भीतर तक समाई हुई है। दुनियाभर की जनजातियों की ही तरह बस्तर में भी संगीत-नृत्य, गायन-वादन का बेहद महत्व है। संगीत के आदिजनक के रूप में गोंडी संस्कृति में लिंगों पेन और भतरी परिवेश में बुढ़ा देव का नाम आता है। कहीं न कहीं ये दोनों ही नटराज के ही अवतार हैं। धार्मिक कर्मकांड, देवोपासना, सामाजिक संस्कार, खेती कर्म या फिर यूं ही समय के साथ साक्षात्कार करना हो; हर अवसर पर बस्तर के लोगों के पास गीत-नृत्य-बाय नाट्य उपलब्ध हैं और यह सारा ज्ञान अंचल के चप्पे-चप्पे में बिखरा पड़ा है। कई दुर्लभ चित्रों व रेखांकन से सज्जित यह पुस्तक लेखक द्वारा इस दिशा में कोई तीन दशकों से किए जा रहे शोध का परिणाम है।
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