क्या आपने कभी सोचा है कि जाने-अनजाने में किए जाने वाले पापकर्माें पर कितना प्रतिशत ब्याज लगाने के उपरान्त प्रतिफल के रूप में उन पापकर्माें का दण्ड भुगतना पड़ता है? हमने इस प्रकरण पर व्यापक शोध किया और चौंकाने वाले परिणाम सामने आए। जानबूझकर किए जाने वाले पापकर्माें पर कितना प्रतिशत ब्याज लगता है- इस पर शोधकार्य अभी जारी है, किन्तु यह सुनकर आप सभी का पसीना छूट जाएगा कि सिर्फ़ अनजाने में किए जाने वाले पापकर्माें पर लगभग 322 प्रतिशत ब्याज के साथ पापी को अपने पापकर्माें का दण्ड भुगतना पड़ता है। हमारे शोधकार्य को गपाष्टक और कपोल-कल्पित समझने की भूल भी न करिएगा, आगे पढि़ए-
कुरुक्षेत्र के मैदान में घटित महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से प्रथम सेनापति के रूप में भीष्म पितामह ने सबसे अधिक दस दिनों तक युद्ध किया था। भीष्म पितामह युद्ध के दौरान प्रतिदिन दस हज़ार सैनिकों का वध करके पाण्डवों की सेना को तहस-नहस करने लगे। इच्छामृत्यु का वरदान होने के कारण भीष्म पितामह पर विजय प्राप्त करना असम्भव जानकर पाण्डव बन्धु श्रीकृष्ण के सुझाव पर सायंकाल युद्ध समाप्ति के उपरान्त श्रीकृष्ण के साथ भीष्म पितामह से मिलने पहुँचे और भीष्म पितामह को प्रणाम करके ससम्मान पूछा- ‘‘आपने अब तक जिस दृढ़ता के साथ युद्ध किया है, वैसा ही युद्ध यदि आप करते रहेंगे तो हम लोग कभी विजयी नहीं हो सकते। अतएव ऐसा उपाय बताइए- आपका वध कैसे हो सकता है?’’
भीष्म पितामह ने मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘मैं जिस समय हाथ मे अस्त्र लेकर युद्ध करता हूँ उस समय मुझे देवता तक जीत नहीं सकते। मेरे हथियार रख देने पर ही वे मुझ पर विजय पा सकते हैं। जिसके पास शस्त्र कवच और ध्वजा नहीं है, जो गिर पड़ा हो, भाग रहा हो अथवा डर गया हो मैं उस पर हाथ नहीं उठाता। इसके अतिरिक्त स्त्री-जाति, स्त्री सदृश नामधारी, अंगहीन, एकमात्र पुत्र के पिता तथा शरणागत व्यक्ति के साथ भी मैं युद्ध नहीं करता। अमंगल-चिन्ह-युक्त ध्वज को देखकर भी युद्ध न करने का मैंने नियम किया था। तुम्हारी सेना में एक महारथी शिखण्डी है। वह पहले स्त्री था, अब पुरुष बन गया है। उसको आगे करके अर्जुन मेरे ऊपर प्रहार करे। शिखण्डी से मैं युद्ध करूँगा नहीं और अर्जुन की चोटें मेरे ऊपर कारगर हो जाएँगी। बस, विजय-प्राप्ति का यही उपाय है।’’ इस प्रकार भीष्म पितामह ने पाण्डवों को अपनी ही मृत्यु का राज़ बता दिया और अगले दिन अर्जुन ने युद्ध में शिखण्डी को अपने सामने करके भीष्म पितामह पर बाणों की वर्षा करके उन्हें ज़मींदोज़ कर दिया।
महाभारत युद्ध के समापन और सभी मृतकों को तिलांजलि देने के उपरान्त पांडवों के साथ श्री कृष्ण भीष्म पितामह से आशीर्वाद लेकर हस्तिनापुर वापस जाने लगे तो उस समय श्रीकृष्ण को रोक कर भीष्म पितामह ने श्रीकृष्ण से पूछा-‘‘मधुसूदन, मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं शर-शैया पर पड़ा हुआ हूँ?’’
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए पूछा- ‘‘पितामह, आपको अपने पूर्वजन्मों का कुछ ज्ञान है?’’
इस पर भीष्म पितामह ने कहा- ‘‘हाँ श्रीकृष्ण, मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है और मैंने किसी व्यक्ति का कभी अहित नहीं किया!’’
इस पर श्रीकृष्ण मुस्कराए और बोले- ‘‘पितामह, आपने ठीक कहा कि आपने अपने सौ पूर्वजन्मों में कभी किसी को कोई कष्ट नहीं दिया, किन्तु एक 101वें पूर्वजन्म में आज की तरह आपने तब भी राजवंश में जन्म लिया था और अपने पुण्य कर्मों के कारण आप बार-बार राजवंश में जन्म लेते रहे। अपने 101वें पूर्वजन्म में जब आप युवराज थे- एक बार शिकार खेलकर आप जंगल से निकल रहे थे, तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा एक वृक्ष से नीचे गिरा। आपने अपने बाण से करकैंटा को उठाकर अपनी पीठ के पीछे फेंक दिया। करकैंटा बेरी के पेड़ पर जा कर गिरा और बेरी के काँटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि करकैंटा बेरी के पेड़ पर पीठ के बल ही जाकर गिरा था। करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही काँटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अट्ठारह दिनों तक तड़पता हुआ जीवित रहा और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा- ‘हे युवराज! जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ, ठीक इसी प्रकार तुम भी होना।’ तो, हे पितामह भीष्म! आपके अनवरत पुण्य कर्मों के कारण आज तक आप पर करकैंटा का श्राप लागू नहीं हो पाया, किन्तु हस्तिनापुर की राजसभा में द्रोपदी का चीर-हरण होने के समय आप मूक दर्शक बने देखते रहे। अबला द्रौपदी पर हो रहे अत्याचार को रोकने में आप पूर्णरूपेण सक्षम थे, किन्तु आपने दुर्योधन और दुःःशासन को नहीं रोका। जिसके कारण पितामह, आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकैंटा का श्राप आप पर लागू हो गया। अतः पितामह, प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी तो भुगतना ही पड़ता है। प्रकृति सर्वोपरि है, इसका न्याय सर्वोपरि और प्रिय है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को भी भोगना पड़ता है और कर्मों के ही अनुसार ही जन्म होता है।’’
महाभारत की कथा के अनुसार सूर्य दक्षिणायण होने और इच्छामृत्यु का वरदान होने के कारण भीष्म अपनी मृत्यु के लिए सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा शर-शैया पर 58 दिनों तक करते रहे थे। महाभारत की इस कथा से यह निर्विवाद रूप से प्रमाणित हुआ कि अपने 101वें पूर्वजन्म में करकैंटा को अनजाने में 18 दिनों तक तड़पाने के पाप का फल अनवरत रूप से पुण्यकर्मों को करने के उपरान्त भी भीष्म पितामह को 101 जन्मों के उपरान्त 58 दिनों तक शर-शैया पर तड़पने के दण्ड के रूप में प्राप्त हुआ। इन परिस्थितियों में जानबूझकर किए गए पापकर्माें का दण्ड कितना मिलता होगा, यह अनुमान लगाना कठिन है। इसके अतिरिक्त महाभारत की इस कथा से यह तथ्य भी निर्विवाद रूप से सिद्ध हुआ कि एक सौ जन्मों तक अनवरत रूप से किए गए पुण्यकर्माें का प्रभाव मात्र द्रौपदी के चीर-हरण को न रोकने के ज़ुर्म के कारण समाप्त हो गया। इस कथा से यह तथ्य भी निर्विवाद रूप से स्पष्ट हुआ कि जब स्त्री पर हो रहे अत्याचार को न रोकने का प्रयत्न करना भी बहुत बड़ा पापकर्म है, तो स्त्री पर अत्याचार करने वालों को कितना दण्ड मिलता होगा? हो सकता है- कुछ लोगों को अपने पूर्वजन्मों के पुण्यकर्माें के कारण इस जन्म में अपने किए गए पापकर्माें का दण्ड न मिलता हो, किन्तु किसी न किसी जन्म में तो अवश्य प्राप्त होता है।