पिछले दिनों विभिन्न डंक अभियान अर्थात् स्टिंग ऑपरेशन के जरिए आम आदमी पार्टी और उसके राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल की खूब छीछालेदर हुई। कांग्रेस नेता आसिफ मोहम्मद के अनुसार उन्होंने अपनी घड़ी के जरिए एक स्टिंग किया जिससे यह पता चलता है कि आम आदमी पार्टी के चरित्र और चाल में बहुत फर्क है. स्टिंग में केजरीवाल दूसरी पार्टी की ही तरह मजहबी पंक्तियों पर बातें कर रहे हैं। एक दूसरे स्टिंग में केजरीवाल कांग्रेसी विधायकों को तोड़ने की बात कर रहे हैं। यही नहीं आप के पूर्व विधायक राजेश गर्ग ने केजरीवाल पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाते हुए कहा कि विधानसभा भंग होने से पहले केजरीवाल और संजय सिंह के अलावा पार्टी के अन्य बड़े नेता फ़ोन पर कांग्रेस-विधायकों को तोड़ने की बातें करते थे। एक अन्य स्टिंग में केजरीवाल बागी ‘आप’ नेताओं प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के लिए अपशब्दों का प्रयोग करते हुए सुने जा सकते हैं। संक्षेप में- डंक अभियान का उद्देश्य यह साबित करना था कि ‘आप’ संयोजक कोई दूध के धुले आदर्शवादी महापुरुष नहीं हैं और उनमें दूसरी पार्टी के नेताओं की तरह ही ‘नेताई गुण-दोष’ विद्यमान हैं। विभिन्न डंक अभियानों में निहित सत्य के तथ्य को देखकर ‘आप’ को वोट देने वाली जनता को गहरा सदमा पहुँचा। जनता को इतना सदमा पहले कभी नहीं पहुँचा था। गहरा सदमा तब पहुँचता है जब आप किसी पर बहुत अधिक भरोसा करते हैं और आपका अटूट भरोसा टूट जाता है। गहरा सदमा तब पहुँचता है जब आप किसी को आदर्शवादी महापुरुष या महामहिला समझते हैं , और आपका भ्रम टूट जाता है। एक उदाहरण के लिए कल्पना कीजिए- तृतीय विश्वयुद्ध हो रहा है और युद्ध जीतने के लिए अन्तिम विकल्प के रूप में परमाणु बम का प्रयोग करना ही बचा है। देश के सबसे बड़े परमाणु वैज्ञानिक पर सम्पूर्ण देश की निगाहें टिक जाती हैं और अन्तिम क्षणों में परमाणु वैज्ञानिक का बयान आता है कि वे परमाणु बम बनाना भूल गए हैं इसलिए परमाणु बम बनाना अब सम्भव नहीं। इन परिस्थितियों में देश की जनता को कितना बड़ा सदमा पहुँचेगा! यही बात देश का कोई छोटा-मोटा वैज्ञानिक कहे तो देश की जनता को इतना बड़ा सदमा नहीं पहुँचेगा जितना कि देश के बहुत बड़े वैज्ञानिक के कहने पर पहुँचेगा। बिल्कुल यही हाल इस समय ‘आप’ संयोजक अरविन्द केजरीवाल का है। जनता के सामने उन्हें एक आदर्शवादी महापुरुष के रूप में पेश किया गया और जब वे जनता के ‘आदर्शवाद मानदण्डों’ पर खरा नहीं उतरे तो जनता को बहुत बड़ा सदमा पहुँचा। हमारा यह लेख किसी पार्टी विशेष को लाभ पहुँचाने अथवा जनता को गहरे सदमे से उबारने के महान उद्देश्य से नहीं लिखा गया है। यह लेख तो हमने अपने दिल में बसे डंक अभियान के खौफ़ को दूर करने के लिए लिखा है। हुआ यह कि आज से लगभग दो दशक पूर्व हमने खेल-खेल में अपनी एक छोटी सी पार्टी बना ली और पार्टी के हाईकमान बनकर दूसरी बड़ी पार्टियों के हाईकमान के समकक्ष बन गए। हमारे समकक्ष बनने की इस प्रक्रिया से दूसरी बड़ी पार्टियों के हाईकमान हमसे कितना नाराज़ हुए होंगे, यह तो हमें नहीं पता किन्तु इतना पता है कि लगभग दो दशक बाद भी हमारी छोटी सी पार्टी का स्तर शून्य पर ही टिका रहा। कुछ वर्षाें पूर्व पार्टी के विकास के लिए एक मीटिंग आयोजित की गई और पार्टी के अध्यक्ष सहित पार्टी के पदाधिकारियों ने अपने-अपने विचार रखे, किन्तु किसी के परामर्श में इतना दम नहीं थी कि पार्टी को सम्पूर्ण देश में स्थापित कर सके। अन्त में सभी पदाधिकारियों की निगाहें पार्टी हाईकमान पर अर्थात् हमारे ऊपर टिक गईं। हमने परामर्श देते हुए कहा- ‘‘पार्टी को देश में स्थापित करने के लिए हमें कन्याकुमारी से कश्मीर तक एक यात्रा आयोजित करनी चाहिए जिसका नाम होगा- ‘भूखा-नंगा यात्रा’। इस ‘भूखा-नंगा यात्रा’ का उद्देश्य देश की जनता में यह प्रचार और प्रसार करना है कि यदि महँगाई इसी तरह बढ़ती रही तो एक दिन देश का हर ग़रीब भूखा और नंगा हो जाएगा और देश में सिर्फ़ चिकनी-चिकनी चौड़ी सड़कें बचेंगी। पार्टी की ओर से इस ‘भूखा-नंगा यात्रा’ को हमारी पार्टी के अध्यक्ष महोदय कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा बिना कुछ खाए-पिए नागा बाबाओं की तरह निर्वस्त्र होकर पैदल ही चलकर सम्पन्न करेंगे।’’
पार्टी अध्यक्ष ने फटाक् से बीच में टपकते हुए कहा- ‘‘इस महान कार्य को आप ही सम्पन्न कीजिए।’’
हमने पार्टी अध्यक्ष को वक्र दृष्टि से घूरते हुए कहा- ‘‘एक समय की चाय-कॉफ़ी मिस हो जाए तो मुझे चक्कर आने लगता है। मैं बिल्कुल भूखा नहीं रह सकता। अर्थी उठ जाएगी मेरी।’’
पार्टी अध्यक्ष ने हथियार डालते हुए कहा- ‘‘यात्रा करने के लिए रथ तो मिलेगा न? बहुत लम्बी दूरी है। कैसे पैदल चलूँगा वो भी भूखा-नंगा रहकर? यात्रा के दौरान बीच-बीच में चाय-कॉफ़ी और कोल्ड ड्रिंक तो मिलेगा न पीने के लिए?’’
हमने कटाक्ष करते हुए कहा- ‘‘भूखा-नंगा यात्रा कहने के बाद खा-पीकर और रथ से चलकर आप देश की जनता को बेवकूफ़ बनाना चाहते हैं? पानी तक नहीं मिलेगा आपको। बिल्कुल पैदल ही चलेंगे आप।’’
पार्टी अध्यक्ष ने मुँह बनाते हुए कहा- ‘‘मैं तैयार हूँ, लेकिन कन्याकुमारी से कश्मीर तक भूखा-नंगा रहकर पैदल यात्रा करना बिल्कुल सम्भव नहीं। फिर भी एक बात मेरी समझ में नहीं आई- कन्याकुमारी से कश्मीर क्यों? सभी पार्टी वाले राजनैतिक यात्राएँ कश्मीर से कन्याकुमारी की ओर ही करते हैं।’’
हमने मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘आप ही के भले के लिए मैंने कन्याकुमारी से कश्मीर की ओर यात्रा करने का सुझाव दिया है।’’
पार्टी अध्यक्ष ही नहीं, सभी की प्रश्नवाचक दृष्टि हमारे ऊपर टिक गई।
हमने सभी की शंका का समाधान करते हुए बताया- ‘‘कश्मीर में कड़ाके की ठण्ड पड़ती है। पार्टी अध्यक्ष कश्मीर में अपना पहला कपड़ा उतारने का प्रयत्न करते ही पार्टी के लिए शहीद हो जाएँगे। कन्याकुमारी में गर्मी पड़ती है। कन्याकुमारी में कपड़ा उतारने पर पार्टी अध्यक्ष को कुछ नहीं होने वाला।’’
पार्टी अध्यक्ष ने प्रसन्न होकर कहा- ‘‘आपकी बात हमें बहुत अच्छी लगी। आपने बड़ी बुद्धिमानी की बात की है, किन्तु सारे कपड़े उतारकर नंग-धडंग यात्रा करना मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। कम से कम लंगोट पहनने की अनुमति प्रदान करें।’’
हमने पार्टी अध्यक्ष को वक्र दृष्टि से घूरते हुए कहा- ‘‘क्या आपने वाकई कन्याकुमारी से कश्मीर तक भूखा-नंगा यात्रा करने का मन बना लिया है? इतना दम है आपमें? भूखा रहकर आप सेन्नै तक भी न पहुँच पाएँगे। मदुरै तक पैदल चलने में आपकी हवा निकल जाएगी। फिर आप ज़मीन पर लेटकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगेंगे- ‘पार्टी अध्यक्ष के ऊपर अत्याचार किया जा रहा है।’ फिर मज़बूर होकर मुझे आपको पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना होगा।’’
पार्टी अध्यक्ष ने भ्रमित होकर पूछा- ‘‘मैं कुछ समझा नहीं।’’
हमने पार्टी अध्यक्ष को समझाया- ‘‘कन्याकुमारी की पुलिस से हमारी पूरी मिलीभगत होगी। बाकी कपड़े उतारने तक पुलिस चुपचाप खड़ी तमाशा देखती रहेगी। जैसे ही आप लंगोट पर हाथ लगाएँगे, पुलिस आपको गिरफ़्तार कर लेगी और आपकी कन्याकुमारी से कश्मीर तक की यात्रा स्थगित हो जाएगी। और फिर पुलिस की कार्यवाही को लोकतन्त्र विरोधी बताते हुए हमारी पार्टी के कार्यकर्ता देश भर में फूँक देंगे।’’
पार्टी अध्यक्ष ने घबड़ाते हुए कहा- ‘‘फ.. फ.. फूँक देंगे? क्या फूँक देंगे? सरकारी बसें?’’
हमने मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘अब मुझे पता नहीं- किस पार्टी ने विवाद होने पर सरकारी बस फूँकने की परम्परा चलाई। हम शुरू से ही इस प्रकार की गतिविधियों के खिलाफ़ रहे हैं। और फिर हमारी पार्टी के किसी कार्यकर्ता में इतना दम नहीं जो बस क्या, साइकिल भी फूँक सके। इसलिए हमारी पार्टी के कार्यकर्ता पार्टी अध्यक्ष की गिरफ़्तारी के खिलाफ़ देश भर में सिगरेट-बीड़ी-सिगार और हुक़्क़ा फूँककर सरकार का विरोध जताएँगे। फिर देश भर में पुलिस के पास एक ही काम रह जाएगा- सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट-बीड़ी-सिगार और हुक़्क़ा पीने वालों को गिरफ़्तार करना।’’
पार्टी अध्यक्ष ने चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा- ‘‘इस तरह तो सार्वजनिक स्थान पर सिगरेट-बीड़ी पीने वाले बेचारे निर्दाेष लोग भी फँस जाएँगे जो पार्टी में नहीं हैं।’’
हमने मुस्कुराते हुए कहा- ‘‘फँसने दीजिए। निर्दाेष लोगों को शहीद होने दीजिए हमारी पार्टी के नाम पर। तभी तो पार्टी की ओर से विरोध जताने वालों की संख्या बढ़ी-चढ़ी दिखेगी। सरकार और मीडिया समझेगी- हमारी पार्टी के कार्यकर्ता देश भर में लगातार सिगरेट और बीड़ी फूँककर अपना विरोध-प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं।’’
सभी ने ताली बजाकर हमारी योजना का अनुमोदन किया। तभी हमारी खोजी दृष्टि पार्टी के एक पदाधिकारी पर केन्द्रित हो गई जो मोबाइल फ़ोन पर कुछ कर रहा था। हमने चेतावनी देते हुए कहा- ‘‘क्या आपको पता नहीं- पार्टी की कॉन्फि़डेन्शल मीटिंग में मोबाइल फ़ोन, पेन, कैमरा, घड़ी, पर्स, माचिस, लाइटर, सिगरेट-बीड़ी-सिगार-हुक़्क़ा, चाभी का गुच्छा और अन्य कोई भी विचित्र लगने वाली वस्तु लाना मना है? आप पार्टी की कॉन्फि़डेन्शल मीटिंग को अपने मोबाइल फ़ोन से रिकार्ड करके स्टिंग करना चाहते हैं?’’
पदाधिकारी ने घबड़ाते हुए कहा- ‘‘म.. मैं स्टिंग नहीं कर रहा हूँ। मैं तो गेम खेल रहा हूँ।’’
हमने कुपित होते हुए कहा- ‘‘गेम खेल रहे हैं या गेम के नाम पर पार्टी का स्टिंग कर रहे हैं- किसको पता? किस बिल में कौन सा साँप घुसा बैठा है किसको पता? आप पार्टी के नियमों के विरुद्ध मोबाइल फ़ोन लाए ही क्यों?’’
पदाधिकारी ने सफाई देते हुए कहा- ‘‘गलती से ले आया था और पार्टी में मोबाइल फ़ोन जमा करने की कोई व्यवस्था नहीं है।’’
हमने कुपित स्वर में कहा- ‘‘अब आप पार्टी को ही दोषी बताने लगे। पार्टी में मोबाइल फ़ोन जमा करने की कोई व्यवस्था नहीं है तो क्या हुआ? आपको अपना मोबाइल फ़ोन हमारी जेब में जमा करके पक्की रसीद ले लेना चाहिए था।’’
पदाधिकारी ने बगलें झाँकते हुए कहा- ‘‘मुझे नहीं पता था- मोबाइल फ़ोन आपकी जेब में जमा करना है।’’
पार्टी अध्यक्ष ने हस्तक्षेप करते हुए कहा- ‘‘पार्टी हाईकमान महोदय से हुज्जत न करें। नहीं तो हाईकमान की गाज आपके ऊपर कभी भी गिर सकती है।’’
पदाधिकारी ने क्षमा माँगते हुए कहा- ‘‘ठीक है। अगली बार से अपना मोबाइल फ़ोन हाईकमान महोदय की जेब में जमा करके पक्की रसीद ले लूँगा।’’
हमने पार्टी अध्यक्ष को निर्देशित करते हुए कहा- ‘‘इनके मोबाइल फ़ोन की अच्छी तरह से जाँच-पड़ताल करके ही बाहर जाने दिया जाए।’’
पार्टी अध्यक्ष ने तुरन्त आदेश का पालन किया। जब जाँच-पड़ताल का नतीजा शून्य निकला तो हम निश्चिन्त हो गए कि स्टिंग नहीं हुआ है। फिर भी तमाम पार्टियों का स्टिंग सार्वजनिक होने के बाद हमारे दिल में यह खौफ़ बैठ गया कि पता नहीं कब हमारी पार्टी की कॉन्फि़डेन्शल मीटिंग की वीडियो रिकार्डिंग स्टिंग के नाम पर सार्वजनिक हो जाए। इसलिए हमने यह निर्णय लिया कि स्वयं आगे आकर कॉन्फि़डेन्शल मीटिंग का सच सभी को बता दें जिससे देश की जनता को भविष्य में कोई सदमा न पहुँचे!
वरिष्ठ स्तंभकार स्वप्न दासगुप्ता दैनिक समाचार-पत्र दैनिक जागरण में अपने एक लेख ‘दिखावटी नैतिकता का सच’ में लिखते हैं कि जब उनसे एक प्रकाशक ने राजनीतिक घटनाक्रमों के बारे में विस्तार से जानकारी देने वाली पुस्तक लिखने का अनुरोध यह कहकर किया कि 'सार्वजनिक तौर पर आम लोगों को जो कुछ बताया अथवा जाहिर किया जाता है, मीडिया वास्तव में उससे अधिक की जानकारी रखता है', तो उन्होंने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि राजनेताओं और दूसरी अन्य सार्वजनिक हस्तियों से उनका सम्बन्ध वर्षों के विश्वास के बाद बना है। किसी महत्वपूर्ण पद को धारण करने वाला अथवा महत्वपूर्ण सूचनाओं तक पहुँच रखने वाला कोई व्यक्ति इन्हें अपने स्तर से सार्वजनिक नहीं कर सकता, क्योंकि इसके पीछे यह विश्वास निहित होता है कि हर हाल में गोपनीयता को बरकरार रखा जाएगा। राजनीतिक जानकारियों अथवा अन्दर की बातों को एकतरफा ढंग से सामने लाना उनके विचार से विश्वासघात वाला कृत्य है। क्या यह अनुच्छेद हर पार्टी के अन्दर छिपे बैठे विश्वासघातियों के मुँह पर तमाचा मारने के लिए पर्याप्त नहीं है? अतः जनता को यह समझना चाहिए कि राजनैतिक पार्टी में हर तरह का तिकड़म और जुगाड़ बैठाना पड़ता है, तब कहीं जाकर कोई पार्टी सत्ता में आती है। अरविन्द केजरीवाल ने ऐसा कुछ नया नहीं किया जिससे उनके आदर्शवादी व्यक्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। ‘टिट फ़ॉर टैट’ अर्थात् ‘जैसे को तैसा’ ही राजनीति के मैदान में टिके रहने का अकाट्य सूत्र है। यहाँ पर एक बात ग़ौर करने लायक है- ‘घर का भेदी लंका ढाए’ की कहावत को चरितार्थ करता हुआ कोई भी पात्र यदि अपने आप को देश की जनता के विश्वासपात्र के रूप में प्रस्तुत करे तो उस पात्र पर किसी हालत में विश्वास नहीं करना चाहिए। सत्ता लोलुपता के कारण योजना बनाकर अपनी ही पार्टी के साथ गद्दारी करने वालों पर भरोसा करना सबसे बड़ी मूर्खता नहीं तो और क्या है?