निर्भया प्रकरण पर बने वृत्तचित्र पर विवाद उठने के बाद लगे प्रतिबन्ध के पक्ष और विपक्ष में विवाद निरन्तर जारी है। कुछ लोगों का काम ही बकना होता है और हम भी इस बीमारी से अछूते नहीं हैं। जहाँ कुछ बकने का अवसर मिला टप से बक दिया। विश्व में बहुत से लोग इस बकने की अनोखी बीमारी से ग्रस्त हैं और इसका कोई इलाज नहीं। जब तक जि़न्दा हैं, बकते रहेंगे, बकते रहेंगे, बकते रहेंगे। पहले लोग चाय-कॉफ़ी की दूकानों पर बककर अपनी मन की ‘बकास’ निकाला करते थे। अब बकने के लिए अन्तर्जाल में सोशल नेटवर्किंग और माइक्रोब्लॉगिंग के नाम पर फ़ेसबुक और ट्विटर जैसी कई दूकानें खुल गई हैं। खाता खोलिए, कुछ लोगों को अपने साथ जोडि़ए और बकना चालू कर दीजिए। आपकी बकवास सुनने के लिए संसार भर के ‘बकप्रेमी’ फ्रेण्ड्स, फ़ॉलोवर, फैन्स और सर्किल के नाम से हाजि़र हो जाएँगे। आपकी बकवास की गुणवत्ता के आधार पर आपको पचास हज़ार से लेकर कई लाख लोग तक मिल सकते हैं। इन सोशल नेटवर्किंग और माइक्रोब्लॉगिंग की दूकानों में यदि कुछ लोगों को अपने साथ नहीं जोड़ सकते तो देशी-विदेशी गपशप संगोष्ठी मंचों पर जाकर बकने का पुराना विकल्प खुला हुआ है, जहाँ पर आपको पहले से जमे-जमाए ‘बकप्रेमी’ मिल जाएँगे। कुछ लोगों का धंधा ही बकना होता है, जैसे- नेता, अभिनेता, लेखक, कवि, कलाकार इत्यादि। नहीं बकेंगे तो धंधा कैसे चलेगा? ऐसे लोगों पर हमें बड़ा क्रोध आता है जो कभी नियमित बकने वाले थे और बकना बन्द करके बैठ गए जैसे बकना कभी आता ही नहीं था। इसके पीछे एक राज़ है। जब आप कुछ बकेंगे तभी तो हमें भी कुछ बकने का अवसर मिलेगा। आपका भी बकने का धंधा चलेगा और हमारा भी। हमारे इस तर्क में दोनों पक्षों का लाभ निहित है। इसलिए यह कुतर्क बिल्कुल नहीं है। कुतर्क तो वह है जो कुछ वृत्तचित्र में साक्षात्कार के नाम पर दिखाया गया। सामने वाला यदि कुतर्क कर रहा हो तो ऐसे कुतर्क को स्वीकार करने वाला स्वयं भ्रष्ट है। तर्क स्वीकार्य हो सकता है, कुतर्क नहीं। किसी कुतर्क को अच्छा समझकर यदि आप स्वीकार कर लेते हैं तो आपसे बड़ा मूर्ख कोई नहीं। स्वविवेक भी कुछ होता है। कुतर्क को मूर्ख ही स्वीकार किया करते हैं, बुद्धिमान नहीं। इन परिस्थितियों में निर्भया प्रकरण पर बने वृत्तचित्र को देखकर भारतीय समाज का बुद्धिजीवी वर्ग कुतर्क की निन्दा ही करेगा, किन्तु हमारे देश में अज्ञानता के कारण ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कुतर्क को सच समझने की बहुत बड़ी भूल करते हैं। अतएव वृत्तचित्र पर लगा प्रतिबन्ध उचित और न्यायसंगत है। अतः दैनिक समाचार-पत्र अमर उजाला में पूर्व राजनयिक सुरेंद्र कुमार के लेख में इंगित प्रश्न-चिह्न 'क्या भारत की छवि वाकई इतनी नाजुक है, जो किसी एक फिल्म या किताब से खंडित हो जाए?' कम से कम भारतीय जनता के परिप्रेक्ष्य में तो कदापि स्वीकार्य नहीं किया जा सकता।
कुतर्क का लिंक- http://www.samacharjagat.com/detail/03-03-2015/delhi-gangrape-case-latest-news