नववर्ष मनाने के लिए जब हम गोवा पहुँचे तो हमने बीच पर किसी को रंगे हाथ पकड़ लिया जिसे नववर्ष की नई कविता के रूप में यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है-
नववर्ष की पूर्वसंध्या पर,
एक विदेशी लेखिका को,
हमने रंगे हाथ पकड़ा।
अपनी आँखों के कैमरे में जकड़ा।
जब वह गोवा के बीच पर,
दारू के नशे में धुत थी,
और अनाप-शनाप बक रही थी!
मैंने कहा- झूठी कहीं की।
दुनिया के लिए दारू के खि़लाफ़ लिखती हो।
और खुद दारू पीकर मौज-मस्ती करती हो?
शर्म नहीं आती?
समाज के लिए कानून बनाकर,
खुद उसी कानून को तोड़ती हो?
क्या तुम्हें पता नहीं-
लेखक समाज का अप्रत्यक्ष विधायक होता है।
और यह बात मैंने नहीं,
किसी और ने लिखा है।
अब शराफत इसी में है-
जो बाकी बची है, उसे भी पी लो।
और अपनी गलती स्वीकार करके,
इक़बाल-ए-जुर्म करो।
तुम्हारा भाँडा फूट चुका है!
क्योंकि हमने रंगे हाथ पकड़ा है!
घबराने की जगह वह मुस्कुराकर बोली-
मेरा भाँडा फूटा नहीं, सिर्फ़ पकड़ा गया है।
इससे मेरी सेहत पर क्या फ़र्क पड़ता है?
अब तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है-
मेरे भाँडे को अपने पास हिफ़ाज़त से रखो।
और हल्ला-गुल्ला बन्द करो।
कोई सुन लेगा तो क्या होगा?
क्या तुम्हें पता नहीं-
कानून बनाने वाला ही कानून तोड़ता है।
और सड़क पर अकड़कर चलता है!
मुझे पता है-
लेखक समाज के लिए कानून बनाता है।
मगर अपने लिए नहीं बनाता।
एक हलवाई भी,
अपना बनाया पकवान नहीं खाता!
फिर मैं क्यों हाय-हाय करूँ?
अपने लिखे पर अमल करूँ?
मेरा लिखा समाज के लिए है।
अपने लिए नहीं है!
मैं तो इसी तरह पियूँगी।
और मौज-मस्ती करूँगी।
मैंने कहा- मूर्ख-नादान!
यह कैसी झूठी शान?
भाँडा कहीं हिफ़ाज़त से रखने के लिए पकड़ा जाता है?
अरे, भाँडा तो सड़क पर फोड़ने के लिए पकड़ा जाता है!
तुम्हारे भाँडे में मैं क्या अचार डालूँगा?
सरे-बाज़ार भाँडा फोड़कर,
गड़बड़ी का रायता फैला दूँगा!
वह फिर मुस्कुराकर बोली-
तुम नेता नहीं हो,
जो मेरी टाँग पकड़कर खींचोगे।
और मुझे दारू पीने से रोकोगे।
नेता ही एक-दूसरे की,
टाँग पकड़कर खींचते हैं।
एक-दूसरे का भाँडा पकड़कर,
हल्ला-गुल्ला करते हैं!
क्या तुम्हें पता नहीं-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,
रमन्ते तत्र देवताः?
नारी पूजा है जहाँ,
देवता बसते हैं वहाँ।
क्या तुम्हें पता नहीं-
अतिथि देवो भवः?
अतिथि तो भगवान होता है।
भगवान के खिलाफ़ बोलना,
बहुत बड़ा पाप होता है!
भगवान से समझौता कर लो।
और अपना मुँह बन्द कर लो।
देखो- मैं भी लेखक,
और तुम भी लेखक लगते हो।
फिर भी मुझसे लड़ते हो?
आपस में लड़ना कैसा?
अरे, कोई नहीं मेरे जैसा!
इसलिए मेरी दोस्ती क़ुबूल करो।
और मेरी बात मानो।
मुझे चार कविता लेकर,
सौदा तय कर लो।
और अपनी आँखें बन्द कर लो।
जो दारू बाकी बची है,
वह खुद पी लो।
पीकर दारू के खिलाफ़ कुछ बोलो।
नए साल पर भाषण देना है।
पब्लिक की वाहवाही लेना है।
दमदार तर्क सुनकर,
मैं नतमस्तक हो गया।
और समझ गया-
विदेशी लेखिका के रूप में,
स्वयं भगवान पधारे हैं।
यह सभी जानते हैं-
भगवान किसी भी रूप में,
दर्शन दे सकते हैं!
चार कविता की फ़ीस पर,
दारू की घूस पर,
हमने सौदा मंजूर किया।
और दारू पीकर,
दारू के खिलाफ़,
बोलना शुरू किया!
क्योंकि इस दुनिया के हमाम में,
सभी नंगे हैं!
हमें वस्त्रों में देखकर,
सभी हँसते हैं!!
अब आप लोग यह तो समझ ही गए होंगे कि हमारे पास चार कविताएं और दारू की एक खाली बोतल है! ऐसा ही होता है यहाँ पर। बहुत से लोग रंगे हाथ पकड़े जाते हैं किन्तु किसी को कुछ पता नहीं चलता, क्योंकि सब कुछ लीप-पोतकर बराबर कर दिया जाता है!