बर्ष 1972 ई. में पहाड़ी जिलों के जंगलों में पेड़ काटने शुरू हुए। पेड़ों की नाजायज कटाई की जा रही थी। गांववासियों को जंगलों की कटाई से बहुत दुख हुआ। वे पेड़ों से अपनी बहुत सारी जरूरतों को पूरा करते थे।
जंगलों की नाजायज कटाई को रोकने के लिए रैनी गांव की वासी गौरा देवी और उसके साथ 27 औरतें पेड़ों से लिपट गईं। उन्होंने सरकार द्वारा नियुक्त ठेकेदारों का डटकर विरोध किया। ठेकेदारों ने उन्हें पेड़ों से हटने के लिए कहा, लेकिन वे पेड़ों से दूर नहीं हटीं। ठेकेदारों ने उन्हें बंदूक से डराने की कोशिश की, लेकिन वे पेड़ों पर ही लिपटी रहीं। गौरा देवी की अगुवाई में आंदोलन शुरू किया गया। इस आंदोलन में रैनी गांव के वासियों ने उनका साथ दिया। यह आंदोलन काफी तेज था। इस आंदोलन को रोकने के लिए उन पर बंदूकें भी तानी गईं, लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह न करते हुए इस आंदोलन को जारी रखा। कुछ पेड़ों के आगे जाकर खड़े हो गए। कुछ पेड़ों से लिपट गए, जिसके कारण पेड़ काटने वाले आगे नहीं बढ़ पाए। यह खबर अखबारों में भी छपी। यह खबर आग की तरह फैल गई। इस खबर को पढ़कर आस-पास के गांव वालों ने भी इस आंदोलन में उनका समर्थन किया। आस-पास के गांव वालों ने भी पेड़ों को बचाने के लिए ऐसा ही किया। पेड़ों को बचाने के लिए गौरा देवी और उसके साथ 27 औरतें लिपट गई थीं। इस आंदोलन को चिपको आंदोलन का नाम दिया गया। यह आंदोलन अहिंसा पर आधारित था। चिपको आंदोलन 26 मार्च 1974 में शुरू हुआ था। इस घटना को बीते हुए 50 वर्ष हो गए हैं। लेकिन आज भी इस घटना को चिपको आंदोलन के नाम से याद किया जाता है। चिपको आंदोलन को प्रेरणा स्रोत माना जाता है।