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मुक़द्दर को ढूंढता

1 फरवरी 2015

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औरों की ही तरह, मुक़द्दर को ढूंढता. आया तेरे शहर मैं, तेरे घर को ढूंढता. वो,जान भी दिया तो महज़ बूँद के लिए. जो शख़्स यूँ चला था, समंदर को ढूंढता. अपना किसे कहें समझ में कुछ नही आता. हर यार मिल रहा यहाँ, खंज़र को ढूंढता. ताउम्र जो ख़ुदा को कभी मान ना सका. ना जाने क्यों मिला वो किसी दर को ढूंढता. जो सब को देखते हों सदा एक नज़र से, मैं कब से चल रहा, उस नज़र को ढूंढता. --नीरज नयन.
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मुक़द्दर को ढूंढता

1 फरवरी 2015
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औरों की ही तरह, मुक़द्दर को ढूंढता. आया तेरे शहर मैं, तेरे घर को ढूंढता. वो,जान भी दिया तो महज़ बूँद के लिए. जो शख़्स यूँ चला था, समंदर को ढूंढता. अपना किसे कहें समझ में कुछ नही आता. हर यार मिल रहा यहाँ, खंज़र को ढूंढता. ताउम्र जो ख़ुदा को कभी मान ना सका. ना जाने क्यों मिला वो किसी दर को ढूंढता.

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मेरी औकात आकर मेरे शहर में देख

1 फरवरी 2015
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नाविक़ का कौशल कभी भंवर में देख. हुस्ने लैला,किसी मजनूँ की नज़र में देख. अपने शहर में रुलाया मुझे पराया कहकर. मेरी औकात आकर मेरे शहर में देख. सुबह का सूरज समझकर तूने नज़र मिलाई है. हिम्मत है तो कभी मुझे दोपहर में देख. अपनी हरकत का असर गर देखना चाहे. उठती गिरती लहरों को समंदर में देख. मुझे घूरने

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