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मन . दिल और आत्मा

24 फरवरी 2017

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मनुष्य की आदत है कि बिना पढ़े वह बहुत कुछ लिख जाता है, और बिना लिखे बहुत कुछ पढ़ भी जाता है. वस्तुतः जीवन को देखना जीवन को पढ़ना है और जीवन को जीना जीवन को लिखना है. जीवन को देखते हुए जीना और जीते हुए देखना ही सार्थक जीना है. मन का काम है- पढ़ना, दिल का काम है- लिखना. जब मन और दिल सायुज्य में शनैः शनैः साथ-साथ सरकते हैं, तो चैतन्य के चिन्मय संगीत में कृष्ण का “ योगस्थः कुरु कर्मणि “ अपने सत्य स्वरुप में साकार होता है. मन और दिल का संतुलन मनुष्य के मनोवै ज्ञान िक स्वास्थ्य की कुंजी है. तभी जीवन को सार्थक गति मिलती है. प्रवहमान धारा से ही कलकल-छलछल का नाद निकलता है. यदि स्थिर जल से ऐसा स्वर निकले तो फिर यही समझा जाये कि उसकी गहरी छाती से असंतोष के बुलबुले निकल रहे हैं. मंद मंद डोलती पत्तियाँ और बहता पवन – दोनों एक दूसरे से पृथक नहीं होते. वायु के वेग में पत्तियों की थिरकन है, और पत्तियों के सुरीले सर्र सर्र स्वर में पवन के प्रचंड आवेग का अनुमान. बिना पवन के यदि पत्तियां डोले तो फिर पेड़ को कोई झकझोर रहा है. मन पवन है, दिल पत्ता है और पेड़ जीवन. तुलसीदास ने प्राकृतिक उपादानों के संतुलन से सृजित जीवन की ओर संकेत किया- “क्षिति जल पावक गगन समीरा पंच तत्व रचित अधम शरीरा” प्रकृति के पंच तत्वों का संतुलित सम्मिश्रण एक भौतिक अस्तित्व का कारण है. मन और दिल तज्जन्य चेतना के अंतर्भुत कारक हैं. ये कारक भीतरी स्तर पर सक्रिय होते हैं. ये ऐसे भीतरी तत्व हैं, जो बाहरी स्वरूप को आवरण देते हैं. इनका रंग इनके बाहरी आवरण को रंग देता है. कबीर ठीक बोले- “ मन ना रंगाये, रंगाये जोगी कपड़ा” कपड़े पर मन का रंग जरूर चढ जाता है. फगुआ में यदि वासंती बयार सनसनाती है तो मन की मस्तानी में ही. मन अगर रुग्ण हो और दिल थका हो तो फगुआ का गीत अपनी लय नहीं पकड़्ता. शारीरिक चेतना की अभिव्यक्ति का स्रोत मन और दिल है, तो मन और दिल की चेतना का उत्स – आत्मा. आत्मा को समझना बड़ा गुढ़ है. आत्मा को समझ लेना खुद को जान लेना है. बड़े-बड़े ज्ञानियों ने आत्मा को जानने के लिए बड़े-बड़े यत्न किये हैं.कौन कहां तक पहुंचा, वहीं जान सका.जो जितनी दूर पहुंचा, उसे उतनी ही और दूर जाने की आवश्यकता मह्सूस हुई. जितनी लंबी यात्रा , उतनी ही अपूर्ण. ठीक उसके उलट, जो जितना कम चला, उसे पूर्णता का उतना प्रबल आभास हुआ.बड़ी विडंबना है- इस अनुभूत जीवन में.जिसने जितना जाना उसे उतनी अज्ञानता का आभास हुआ और जिसने कम जाना, ज्ञानी होने की भ्रांति उसे ही हुई. केनोपनिषद के वाक्य अप्रासंगिक कथमपि नहीं हैं: “यस्यामतं मतं तस्य मतं यस्य न वेद सः” इस भँवर से निकलकर आत्मा को जान लेना ही वस्तुतः परमात्मा का साक्षात्कार है. इस रहस्यमय ज्ञान को पाने के उपरांत ज्ञानी परमात्मामय हो जाता है. और; फिर स्वयं निर्णय लेने की पात्रता प्राप्त कर लेता है. सारथी कृष्ण अंत में अर्जून को यहीं बोलता है: “इति ज्ञानं आख्यानं गुह्यात गुह्यतमं मया विमृश्यैतद्शेषेण यथेच्छसि तथा कुरु.” --------विश्वमोहन

विश्वमोहन की अन्य किताबें

रेणु

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सारगर्भित विषय --

2 मार्च 2017

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मन . दिल और आत्मा

24 फरवरी 2017
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आलोचना की संस्कृति

28 फरवरी 2017
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कविताओं के संग्रह के साथ कुछ साहित्य-साधकों से अलग-अलग मिलने का सुअवसर मिला. कवितायें बहुरंगी और अलग-अलग तेवरों में थी. कुछ आध्यात्मिक, कुछ मानवीय संबंधों पर , कोई मांसल श्रृँगार का चित्र खींचने वाली, कोई प्रकृति के सौन्दर्य की छवि उकेरने वाली, कोई सामाजिक विषमता और व्यवस्था के पाखण्ड पर प्रहार कर

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प्रेम-जोग

2 मार्च 2017
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आ री गोरी, चोरी चोरीमन मोर तेरे संग बसा है.राधा रंगी, श्याम की होरीब्रज में आज सतरंग नशा है.पहले मन रंग, तब तन को रंगऔर रंग ले वो झीनी चुनरिया.‘प्रेम-जोग’ से बीनी जो चुनरउसे ओढ़ फिर सजे सुंदरिया.रहे श्रृंगार चिरंतन चेतनलोचन सुख, सखी लखे चदरिया.अनहद, अनंत में पेंगे भर लेअब न लजा, आजा तु गुजरिया.लोक-ला

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वसंत

7 मार्च 2017
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जीवन घट में कुसुमाकर ने, रस घोला है फिर चेतन का /शरमायी सुरमायी कली में, शोभे आभा नवयौवन का //डाल डाल पर नवल राग में,प्रत्यूष पवन का मृदु प्रकम्पन/लतिका ललना की अठखेली में, तरु किशोर का नेह निमंत्रण //पत्र दलों की नुपुर ध्वनि सुन, वनिता खोले घन केश पाश /उल्लसित पादप पुंज वसंत मे

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प्रेम पीयूष

9 मार्च 2017
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पतित पावन पुण्य सलिला के प्रस्तर मेंचारू चंद्र की चंचल चांदनी की चादर मेंपूनम तेरी पावस स्म्रृति के सागर मेंप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.अब विरह की घोर तपस मेंप्रेम पीर की शीत तमस मेंबिछुडन की इस कसमकश मेंप्रणय के एक एक तंतु कोबडे जतन से मै बुनता हूँप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगत

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जुलमी फागुन! पिया न आयो.

11 मार्च 2017
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जुलमी फागुन! पिया न आयो.बाउर बयार, बहक बौराकरतन मन मोर लपटायो.शिथिल शबद, भये भाव मवनसजन नयन घन छायो.मदन बदन में अगन लगायेसनन सनन सिहरायोकंचुकी सुखत नहीं सजनीउर, मकरंद बरसायो .बैरन सखियन, फगुआ गायेबिरहन मन झुलसायो.धधक धधक, जर जियरा धनकेअंग रंग सनकायो.जुलमी फागुन! पिया न आयो.टीस परेम-पीर, चिर चीर

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तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

16 मार्च 2017
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मीत मिले न मन के मानिकसपने आंसू में बह जाते हैं।जीवन के विरानेपन में,महल ख्वाब के ढह जाते हैं।टीस टीस कर दिल तपता हैभाव बने घाव ,मन में गहरे।तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!अंतरिक्ष के सूनेपन मेंचाँद अकेले सो जाता है।विरल वेदना की बदरी मेंलुक लुक छिप छिप खो जाता है।अकुलाता पूनम का सागरउठती गिरती व्याकु

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गौरैया

20 मार्च 2017
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अंतर्राष्ट्रीय गौरैया दिवस पर :----भटक गयी है गौरैयारास्ता अपने चमन कासूने तपते लहकतेकंक्रीट के जंगल मेंआग से उसनातीधीरे से झाँकतीकिवाड़ के फाफड़ सेवातानुकुलित कक्षसहमी सतर्कन चहचहाती न फुदकतीकोठरी की छत कोनिहारती फद्गुदीअपनी आँखों मे ढ़ोतीघनी अमरायी कानन की..........टहनियों के झुंड मेलटके घोंसलेजहां च

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एक ऋषि से साक्षात्कार (विश्व जल दिवस के अवसर पर )

22 मार्च 2017
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विश्व जल दिवस के अवसर पर एक ऋषि से साक्षात्कार(मैगसेसे पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत और चिपको आंदोलन के प्रणेता प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद श्री चंडी प्रसाद भट्ट को अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित होने के अवसर पर उनको समर्पित उनसे पिछले दिनो

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मानस की प्रस्तावना

25 मार्च 2017
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किसी भी ग्रंथ के प्रारम्भ की पंक्तियाँ उसमें अंतर्निहित सम्भावनाओं एवं उसके उद्देश्यों को इंगित करती हैं . कोई यज्ञ सम्पन्न करने निकले पथिक के माथे पर माँ के हाथों लगा यह दही अक्षत का टीका है जो उस यज्ञ में छिपी सम्भाव्यताओं की मंगल कामना तथा उसके लक्ष्यों की प्रथम प्रतिश्रुति है . दुनिया के महानतम

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गांधी और चंपारण ( चंपारण सत्याग्रह शताब्दी, १० अप्रैल २०१७, के अवसर पर )

10 अप्रैल 2017
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चंपारण की पवित्र भूमि मोहनदास करमचंद गांधी की कर्म भूमि साबित हुई।दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह विदेशी धरती पर अपमान की पीड़ा और तात्कालिक परिस्थितियों से स्वत:स्फूर्त लाचार गांधी के व्यक्तित्व की आतंरिक बनावट के प्रतिकार के रूप में पनपा, जहां रूह की ताकत ने अपनी औकात को आँका। लेकिन एक सुनियोजित राष्ट्

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आर्त्तनाद (लघुकथा)रात भर धरती गीली होती रही। आसमान बीच बीच में गरज उठता। वह पति की चिरौरी करती रही। बीमार माँ को देखने की हूक रह रह कर दामिनी बन काले आकाश को दमका देती। सूजी आँखों में सुबह का सूरज चमका। पति उसे भाई के घर के बाहर ही छोड़कर चला आया। घर में घुसते ही माँ के चरणों पर निढाल उसका पुक्का फट

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वचनामृत

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दूरदर्शन पर चर्चा : सोशल साइट, साहित्य और महिलाएं

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भक्त और भगवान का समाहार!

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‘लोकबंदी’ और ‘भौतिक-दूरी’

21 जुलाई 2020
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https://waachaal.blogspot.com/2020/05/blog-post.htmlकिसी भी क्षेत्र की भाषा उस क्षेत्र की संस्कृति की कोख से अपने शब्दों की सुगंध बटोरती है। वहाँ की लोक-परम्परा, जीवन शैली, आबोहवा, फ़सल, शाक-सब्ज़ी, फलाहार, लोकाचार, रीति-रिवाज, खान-पान, पर्व-त्योहार, नाच-गान, हँसी-मज़ाक़, हवा-पानी जैसे अगणित कारक है

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