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किसी भी क्षेत्र की भाषा उस क्षेत्र की संस्कृति की कोख से अपने शब्दों की सुगंध बटोरती है। वहाँ की लोक-परम्परा, जीवन शैली, आबोहवा, फ़सल, शाक-सब्ज़ी, फलाहार, लोकाचार, रीति-रिवाज, खान-पान, पर्व-त्योहार, नाच-गान, हँसी-मज़ाक़, हवा-पानी जैसे अगणित कारक हैं जो उस क्षेत्र की बोली और भाषा के लिए शब्दों का निर्माण करते हैं। इसलिए आपको हर भाषा में हर तरह के शब्द नहीं मिलेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसी प्रबल संभावना है कि किसी भाषा में प्रचलित शब्द का पर्याय किसी दूसरे क्षेत्र की भाषा में नहीं भी मिले क्योंकि उस क्षेत्र की संस्कृति में उस शब्द की कोई उपादेयता या प्रासंगिकता ही न हो। जैसे-जैसे इस तरह की दूसरी संस्कृति के किसी नए तत्व का प्रवेश उसमें होता है तो साथ-साथ तदनुरूप दूसरी भाषा के शब्द भी प्रवेश कर जाते हैं। विदेशज शब्दों के प्रवेश की भी यहीं गाथा है। उदाहरण के तौर पर सनातन संस्कृति में विवाह-विच्छेद जैसी किसी संस्कृति के प्रचलन का कोई सुराग़ नहीं मिलता है। इसीलिए तलाक़ या डिवॉर्स का कोई समानार्थक शब्द हिंदी या संस्कृत में नहीं मिलता। द्रविड़ भाषाओं की मुझे जानकारी नहीं। फिर भी मुझे पूरा विश्वास है कि दक्षिण की भाषाओं में भी यह उपलब्ध नहीं ही होगा।
उसी तरह तकनीकी विकास के दौर में भी नयी-नयी इजाद होने वाली चीज़ों के नाम के बारे में भी यहीं प्रथा है कि उसका अविष्कार करने वाले क्षेत्र की भाषा में उसके प्रचलित नाम को ही अमूमन उसका सार्वभौमिक नाम सभी भाषाओं में स्वीकार कर लिया जाता है और आज के सूचना क्रांति के युग में उन विदेशज शब्दों के आम जन के मुँह चढ़ जाने में तो कोई बड़ा वक़्त भी नहीं लगता है। इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में रासायनिक, जैविक और वानस्पतिक नामों के एक मानक ‘नोमेंक्लेचर’ की प्रणाली इजाद कर ली गयी है ताकि किसी तरह की कोई भ्रांति नहीं रहे। लेकिन मानविकी और समाज-शास्त्र में अपनी-अपनी भाषा में अनुवाद की स्वतंत्रता है। भलें ही, वह अनुदित समानार्थक शब्द आपकी पारिभाषिक शब्दावली में अपना स्थान बना ले, किंतु आम जन की ज़ुबान पर चढ़ने में उसे लम्बा वक़्त लग जाता है।
दूसरी ओर, क्षेत्रीय भाषाओं में स्थानीय बोलियाँ अपने अर्थों में वहाँ की जीवन-शैली से खाद-पानी लेकर पनपती और बढ़ती हैं तथा अपने उच्चारण मात्र से एक समग्र चित्र उपस्थित कर देती हैं। लोकोक्तियाँ और मुहावरे भी उसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। यही कारण है कि सनातन परम्परा का ‘धर्म’ पश्चिमी देशों के ‘रिलीजन’ और भारत-भूमि का ‘सर्वधर्म समभाव’ यूरोपीय ‘सेकूलरिज़्म’ के साथ अपना उचित तालमेल नहीं बिठा पाता। हमारा सनातनी ‘सम्प्रदाय’ भी आधुनिक संदर्भ में प्रयोग होने वाले ‘संप्रदायवाद’ का उत्स कदापि नहीं हो सकता!
नयी चुनौतियाँ और नये परिवेश भी भाषा को नए शब्दों से लैश कर जाते हैं। जिस भूमि पर पहले-पहल ये चुनौतियाँ सिर उठाती है वहीं की भाषा नए शब्दों के इस अवसर को लोक लेती हैं और बाक़ी भाषाएँ या तो उनका अनुवाद अपनी भाषा में कर लेती हैं या फिर उसे ज्यों-का-त्यों अपना लेती हैं। मुझे याद है कि जब सोवियत रूस में सुधारों का ज़माना आया तो दो शब्द बड़े प्रचलित हुए, ‘ग्लासनौस्ट’ और ‘पेरेस्त्रोईका’। हमने इसे हिंदी में ‘खुलापन’ और ‘पुनर्संरचना’ नाम दिया। उसी तरह ‘प्रोलैटरिएट’ को हमने ‘सर्वहारा’ कहा लेकिन ‘बुर्जुआ’ ‘बुर्जुआ’ ही रहा। लेकिन जब हमारे ग्रामीण इलाक़ों में चिलचिलाती धूप वाले मौसम में ख़ाली पेट लीची खाने से बच्चों में अपनी ख़ास पहचान लिए एक जानमारु बीमारी आयी तो उसका नाम ‘चमकी’ रख दिया। अब ऐसी बीमारी विदेशों में भी लीची-बाग़ान लगाए जाने के बाद यदि हो तो पता नहीं वहाँ कौन सा नाम लेकर आएगी। ऐसे असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं।
अब ‘कोरोना’ का रोना मचा है तो दो शब्द मेरा ध्यान बरबस खींचते हैं। एक है ‘लॉक डाउन’ तथा दूसरा है ‘सोशल-डिस्टेंसिंग’। ‘लॉक डाउन’ को तो हम यथावत प्रयोग कर रहे हैं, लेकिन ‘सोशल-डिस्टेंसिंग’ को ‘सामाजिक-दूरी’ में अनुवादित कर दिया है। अब हमारे यहाँ तो पहले कभी महामारी की ऐसी विकट आयातित स्थिति तो आयी नहीं कि ‘खेत खाए गदहा, मार खाए जुलहा’! हवाई जहाज़ पर सवार होकर भिन्न-भिन्न देहों के रास्ते कोरोना के वाइरस ने भारतीय शरीर में अपना घर बनाना शुरू किया है और हम उसकी गृह-श्रृंखला-निर्माण की निरंतरता को तोड़ने के लिए ‘लॉक डाउन’ में बंद होकर अपने घरों से निकलना बंद कर रहे हैं और आपस में ‘सोशल-डिस्टेंसिंग’ के मार्फ़त एक निश्चित भौतिक (जिसमें शारीरिक भी शामिल है) दूरी बनाकर एक-दूसरे के सम्पर्क में आने से परहेज़ कर रहे हैं। इससे पहले हम ‘लॉक डाउन’ को ‘फ़ैक्टरियों’ में तालेबंदी और मज़दूरों के हड़ताल पर चले जाने को बोलते थे, जो एक नकारात्मक भाव देता था। यहाँ तो बीमारी की छूत लगने-लगाने के भय से इस ‘लोक’(संसार) के समस्त ‘लोक’(प्राणियों) ने ही अपने को स्वेच्छा से बंद कर लिया है। यह एक ‘लोकतांत्रिक’ ‘लोकबंदी’ है। ‘लोकबंदी’ एक निहायत सकारात्मक क़दम है।
अब ‘सोशल-डिस्टेन्सिंग’ की बात कर लें। मनुष्य है ही मनुष्य केवल इसलिए कि वह स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिकता का अपना स्वभाव त्याजते ही वह जानवर की श्रेणी में आ जाता है। फिर सामाजिक दूरी बनाने की बात को यह दोपाया समाज अपनी भाषा में भला कैसे पचा सकता है? वह भी हमारा देश भारत! परिवार और समाज यहाँ की अटूट व्यवस्था में महज संस्थाएं ही नहीं बल्कि संस्कार है और किसी भी तरह की ‘पारिवारिक-दूरी’ या ‘सामाजिक- दूरी’ बनाए रखने की बात इसके वजूद की मूलभूत अवधारणा के ही ख़िलाफ़ होगा। इसलिए बेहतर हो यदि हम इसे ‘सामाजिक-दूरी’ के बजाय ‘भौतिक-दूरी’ कहें और वैसा ही करें भी!
तो ‘लोकबंदी’ और ‘भौतिक-दूरी’ भाषा, भाव और कर्म में अपनाएँ ताकि कोरोना पास भी फटकने न पाए!!!