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तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

16 मार्च 2017

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मीत मिले न मन के मानिक

सपने आंसू में बह जाते हैं।

जीवन के विरानेपन में,

महल ख्वाब के ढह जाते हैं।

टीस टीस कर दिल तपता है

भाव बने घाव ,मन में गहरे।


तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!


अंतरिक्ष के सूनेपन में

चाँद अकेले सो जाता है।

विरल वेदना की बदरी में

लुक लुक छिप छिप खो जाता है।

अकुलाता पूनम का सागर

उठती गिरती व्याकुल लहरें।


तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!


प्राची से पश्चिम तक दिन भर

खड़ी खेत में घड़ियाँ गिनकर।

नयन मीत में टाँके रहती,

तपन प्यार का दिनभर सहती।

क्या गुजरी उस सूरजमुखी पर,

अंधियारे जब डालें पहरे।


तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!


वसुधा के आँगन में बिखरी,

मैं रेणु अति सूक्ष्म सरल हूँ।

जीव जगत के अमृत घट में,

श्रद्धा पय मैं भाव तरल हूँ।

बहूँ, तो बरबस विश्व ये बिहँसे

लूँ विराम,फिर सृष्टि ठहरे।


तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!


विश्वमोहन की अन्य किताबें

रेणु

रेणु

विश्वमोहन जी -- बहुत खूब लिखा आपने -- तुम क्या जानो पुरुष जो ठहरे ! नारी मन खूब थाह पाई आपने -- बहुत सुंदर और हृदयस्पर्शी रचना है -- मन को अनायास करुणा से भर जाने वाली -- आप को हार्दिक बधाई --

17 मार्च 2017

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मन . दिल और आत्मा

24 फरवरी 2017
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मनुष्य की आदत है कि बिना पढ़े वह बहुत कुछ लिख जाता है, और बिना लिखे बहुत कुछ पढ़ भी जाता है. वस्तुतः जीवन को देखना जीवन को पढ़ना है और जीवन को जीना जीवन को लिखना है. जीवन को देखते हुए जीना और जीते हुए देखना ही सार्थक जीना है. मन का काम है- पढ़ना, दिल का

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आलोचना की संस्कृति

28 फरवरी 2017
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कविताओं के संग्रह के साथ कुछ साहित्य-साधकों से अलग-अलग मिलने का सुअवसर मिला. कवितायें बहुरंगी और अलग-अलग तेवरों में थी. कुछ आध्यात्मिक, कुछ मानवीय संबंधों पर , कोई मांसल श्रृँगार का चित्र खींचने वाली, कोई प्रकृति के सौन्दर्य की छवि उकेरने वाली, कोई सामाजिक विषमता और व्यवस्था के पाखण्ड पर प्रहार कर

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प्रेम-जोग

2 मार्च 2017
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आ री गोरी, चोरी चोरीमन मोर तेरे संग बसा है.राधा रंगी, श्याम की होरीब्रज में आज सतरंग नशा है.पहले मन रंग, तब तन को रंगऔर रंग ले वो झीनी चुनरिया.‘प्रेम-जोग’ से बीनी जो चुनरउसे ओढ़ फिर सजे सुंदरिया.रहे श्रृंगार चिरंतन चेतनलोचन सुख, सखी लखे चदरिया.अनहद, अनंत में पेंगे भर लेअब न लजा, आजा तु गुजरिया.लोक-ला

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वसंत

7 मार्च 2017
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जीवन घट में कुसुमाकर ने, रस घोला है फिर चेतन का /शरमायी सुरमायी कली में, शोभे आभा नवयौवन का //डाल डाल पर नवल राग में,प्रत्यूष पवन का मृदु प्रकम्पन/लतिका ललना की अठखेली में, तरु किशोर का नेह निमंत्रण //पत्र दलों की नुपुर ध्वनि सुन, वनिता खोले घन केश पाश /उल्लसित पादप पुंज वसंत मे

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प्रेम पीयूष

9 मार्च 2017
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पतित पावन पुण्य सलिला के प्रस्तर मेंचारू चंद्र की चंचल चांदनी की चादर मेंपूनम तेरी पावस स्म्रृति के सागर मेंप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.अब विरह की घोर तपस मेंप्रेम पीर की शीत तमस मेंबिछुडन की इस कसमकश मेंप्रणय के एक एक तंतु कोबडे जतन से मै बुनता हूँप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगत

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जुलमी फागुन! पिया न आयो.

11 मार्च 2017
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जुलमी फागुन! पिया न आयो.बाउर बयार, बहक बौराकरतन मन मोर लपटायो.शिथिल शबद, भये भाव मवनसजन नयन घन छायो.मदन बदन में अगन लगायेसनन सनन सिहरायोकंचुकी सुखत नहीं सजनीउर, मकरंद बरसायो .बैरन सखियन, फगुआ गायेबिरहन मन झुलसायो.धधक धधक, जर जियरा धनकेअंग रंग सनकायो.जुलमी फागुन! पिया न आयो.टीस परेम-पीर, चिर चीर

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तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

16 मार्च 2017
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मीत मिले न मन के मानिकसपने आंसू में बह जाते हैं।जीवन के विरानेपन में,महल ख्वाब के ढह जाते हैं।टीस टीस कर दिल तपता हैभाव बने घाव ,मन में गहरे।तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!अंतरिक्ष के सूनेपन मेंचाँद अकेले सो जाता है।विरल वेदना की बदरी मेंलुक लुक छिप छिप खो जाता है।अकुलाता पूनम का सागरउठती गिरती व्याकु

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गौरैया

20 मार्च 2017
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अंतर्राष्ट्रीय गौरैया दिवस पर :----भटक गयी है गौरैयारास्ता अपने चमन कासूने तपते लहकतेकंक्रीट के जंगल मेंआग से उसनातीधीरे से झाँकतीकिवाड़ के फाफड़ सेवातानुकुलित कक्षसहमी सतर्कन चहचहाती न फुदकतीकोठरी की छत कोनिहारती फद्गुदीअपनी आँखों मे ढ़ोतीघनी अमरायी कानन की..........टहनियों के झुंड मेलटके घोंसलेजहां च

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एक ऋषि से साक्षात्कार (विश्व जल दिवस के अवसर पर )

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विश्व जल दिवस के अवसर पर एक ऋषि से साक्षात्कार(मैगसेसे पुरस्कार, पद्मश्री और पद्मभुषण अलंकृत और चिपको आंदोलन के प्रणेता प्रसिद्ध गांधीवादी पर्यावरणविद श्री चंडी प्रसाद भट्ट को अंतर्राष्ट्रीय गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित होने के अवसर पर उनको समर्पित उनसे पिछले दिनो

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गांधी और चंपारण ( चंपारण सत्याग्रह शताब्दी, १० अप्रैल २०१७, के अवसर पर )

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