अभी मैंने उस ग्रामीण स्त्री की बायीं आँख
का ऑपरेशन शुरू ही किया था कि उसने कहना शुरू कर दिया। ''डाक्टरनी ! तुम
तो देवी हो देवी! तुमने पहले मेरे आदमी की आँख का ऑपरेशन किया उसे रोशनी
दी। अब तुम मेरा ऑपरेशन कर रही हो। तुम तो सचमुच ही देवी हो।"
मेरा मन-मष्तिष्क गर्व और प्रसन्नता से फूल उठा कितना महान काम कर रही थी मैं। आखिर तारीफ किसे अच्छी नहीं लगती और डिग्री लेने के बाद शुरूआती दिनों में कुछ ज्यादा ही अच्छी लगती है। वैसे भी हम नेत्र चिकित्सकों के यहां कोई बड़ी बड़ी घटनायें तो होती नहीं हैं जिनसे जनरल सर्जन और ओब्स्ट्रेटीशीयन का रोज सामना होता रहता है जब रोगी के परिजन हाथ जोड़ कर कहते हैं डॉक्टर साहब आप तो भगवान हो जो हमारे मरीज को मौत के मुंह से बाहर निकाल लाये या फिर कहते हैं आपने तो हमारे घर संसार को खुशियों से भर दिया । किसी को जीवन दान देने वाले रोमांचक नाटकीय पल नहीं होते हमारे जीवन में।
बड़ी प्रसन्नता से देवी के पद पर प्रतिष्ठित रहते हुए मैंने उसका ऑपरेशन समाप्त किया और दूसरी टेबल का रुख किया। पांच वर्ष के एक छोटे बच्चे की आँख में चोट लग गयी थी। उन दिनों महाभारत धारावाहिक अपने चरम उत्कर्ष पर और अत्यंत लोकप्रिय था इसलिये बच्चे अर्जुन और कर्ण जैसे धुरंधर योद्धा बनकर खेलते थे । ऐसे ही एक महायुध्द के दौरान हमारे इस कर्ण की आँख में तीर लग गया था और उसका कॉर्निया फट गया था इसलिये उसमें टांके लगाने थे। बच्चा काफी घबराया हुआ था और सिसकियाँ लेकर रो रहा था ऊपर से उसे ऑपरेशन थियेटर में चारों तरफ कैप मास्क पहने अजीब अजीब लोग दिखाई दे रहे थे जो एक स्वर में उसे डांट कर चुप रहने को और लेटने को कह रहे थे । कुछ क्षणों बाद उसने मुझे पहचान लिया और बड़ी आशा से बोला "डॉक्टर मैडम मुझे गोदी ले लो" अब मैडम गोदी कैसे लेती उसे। उस बेचारे को मायूस ही रहना पड़ा । फिर उसने समझौते का रुख अपनाया "अच्छा इस बार छोड़ दो आगे से कभी शैतानी नहीं करूंगा।" पर सब हंसने लगे और स्टाफ ने उसे जबरदस्ती टेबल पर लेटा दिया। अब उस बहादुर बच्चे ने अंतिम दांव चला "तुम लोग नहीं मान रहे हो मैं अपने पापा को बुलाता हूँ एक एक को ठीक कर देंगे पापा।" इसका उत्तर भी उसे हम सब की समवेत हास्य ध्वनि से मिला और इसके साथ ही एनस्थेटिस्ट ने उसके बायें हाथ में इन्ट्राकैथ लगा दिया और दो बूंद रक्त टपक पड़ा। बस खून देखते ही उसे गुस्सा आ गया और वो चिल्ला उठा "अरे पुलिस ! ओ पुलिस! कहाँ हो रे ? दौड़ो रे दौड़ो ! जल्दी आओ दौड़ कर आओ पकड़ो इन्हें। ये सारे डाकू मिलकर मेरा खून निकाल रहे हैं।"
उसके शांत और मूर्छित होने के बाद उसका ऑपरेशन करते हुए मैं इस विचित्र विरोधाभासी घटना क्रम के बारे में सोच रही थी जहां एक क्षण में किसी ने मुझे देवी के उच्च पद पर आसीन कर दिया था और दूसरे ही क्षण एक नन्हे बच्चे द्वारा मेरी नियुक्ति और अवनति डाकुओं के गैंग में हो गयी थी। और मुझे कुछ कुछ समझ भी आ रहा था कि क्यों प्रशंसा से बहुत प्रसन्न नहीं होना चाहिये और न ही निंदा से विचलित। आखिर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो हैं ।
ड़ॉ कुमुद गर्ग