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एक नायिका

29 सितम्बर 2021

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आज जब पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है मैंने जीवन में कुछ पाया ही नहीं, सिर्फ संघर्ष करती रह गई और जिंदगी रेत के समान हाथ से फिसल गई ।आज मैं बिल्कुल अकेली रह गई, ना दारजी रहे ,ना ही मां रही, ना पालने वाले रहे, ना ही जन्म देने वाले ,ना ही बच्चे और ना ही पति।

मैं एक हिंदू परिवार में पैदा हुई थी, नाम रखा गया मनजीत, प्यार से सब मुझे मनु कहते थे, उन दिनों हिंदू और सिखों के परिवारों में ज्यादा अंतर नहीं थे, एक दूसरे के घरों में ब्याह शादियां आराम से हो जाती थी। हमारे घर के सामने एक सिख परिवार रहता था ,उनके कोई औलाद नहीं थी उन्होंने मुझे गोद ले लिया, मैं सात भाई बहनों में पांचवें नंबर पर थी, घर में गरीबी थी ,सो मेरे जन्म दाता ने आसानी से पैदा होते ही मुझे दूसरों के हवाले कर दिया ।अगर मेरी जगह कोई बेटा होता तो शायद सौ बार सोचते ,परंतु मुझे आसानी से दूसरे को दे दिया, नाम मिला मनजीत कौर।
मासी जी के घर उनकी बेटी हुई थी ।सबके साथ मुझे भी ले गए बच्ची को देखने के लिए‌। उस वक्त मैं सात साल की थी, बच्ची बहुत प्यारी थी, मासी जी के गोद में रूई की गुड़िया लग रही थी, सुंदर सी ,मौसा जी भी उसे उठाते फिर रहे थे,
तभी मौसी की सास आ गई और कहने लगी, "हमारी रज्जो तो बिल्कुल ही अपने पापा जी पर गई है"
" हां नाक मुझ पर गई है "तभी मौसी बोल पड़ी। "अरे देखो होठ बिल्कुल मुझ पर गए हैं"बुआ ने कहा।
वहां बैठी मां मौसी की पड़ोसन ने कहा," माथा बिल्कुल अपने चाचा पर गया है" वहां बैठे सभी लोग कुछ न कुछ कह रहे थे और मैं गुमसुम सी बैठी अपने वजूद को सोच रही थी कि मेरी आंखें किस पर गई है, मेरी नाक शायद मां पर गई है या पिताजी पर ,पता नहीं, क्योंकि मेरे पालनहार मुझे लेकर दूसरे शहर आ गए थे और मैं इतनी बड़ी तो हो गई थी और इतना समझ गई थी कि मैं अपने मां-बाप से बिल्कुल भी शक्ल में नहीं मिलती थी क्योंकि वह दोनों गोरे चिट्टे थे और मैं सांवली।
पिताजी और मां ने तो कभी भी मुड़कर मेरा हाल चाल नहीं पूछा, याद भी करते हो शायद ,पर मुझे कभी भी पता नहीं चला ।लेकिन दारजी(पापा) और बेबे(मां)मुझे बहुत प्यार करते थे। मेरा बहुत ख्याल रखते थे ।मैं कुछ भी मांगती, हमेशा मुझे मिल जाता था ,इसलिए मैं कुछ जिद्दी भी हो गई थी
दारजी की एक विधवा बहन थी,"शन्नो बुआ"  उनका एक बेटा भी था। उनको मैं बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती थी, क्योंकि उनको लगता था कि मैं उनके भाई के और उनके बीच दीवार बन गई हूं ,और उनकी कमाई का हिस्सा लेने वाली आ गई हूं ।
उनकी और मेरे बीच हमेशा खींचातानी चलती रहती थी ।बुआ का बेटा कुलवंत मुझे प्यार तो बहुत करता था, पर कभी कभी अपनी मां की बातों में आकर मुझसे लड़ने लगता, कभी मेरी चोटी खींच कर भाग जाता ,तो कभी दार जी की लाई हुई गुड़िया ।
फिर भी कुलवंत भाई का साथ मुझे बहुत अच्छा लगता था।
वैसे तो दार जी मुझे बहुत प्यार करते थे, पर घर में रोक-टोक तो बहुत थी।मुझे दो चुटिया भी नहीं करने दी जाती थी, जबकि उन दिनों दो चोटियों का बहुत फैशन था, जब भी मैं दो चुटिया करती तो बेबे कहती," एक चोटी कर मनु दार जी ने देख लिया तो तेरे साथ मेरी भी शामत आ जाएगी" मैं कहती ,"हूं कुछ नहीं होगा बेबे"
" कुछ नहीं कैसे होगा, तुझे पता नहीं है अपने दारजी का"
एक बार मैं अपनी सहेली पुष्पा के साथ बाजार जा रही थी, दो चोटियां लहराते हुए ,अपने आप को किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं समझ रही थी ,क्योंकि उस दिन मैंने पुष्पा की लिपस्टिक भी लगाई हुई थी ।
पुष्पा के घर ज्यादा रोक-टोक नहीं थी ,मुझे बेबे हमेशा पुष्पा से मिलने से रोकती थी ,कहती थी, "वह बुरी लड़की है क्योंकि वह दो चोटियां करती है और गाहे-बगाहे घर से बाहर घर का सामान लेने चली जाती है ,और उसकी हंसी की आवाज सारा मोहल्ला सुनता है ,जबकि लड़कियों को धीरे बोलना चाहिए ,हंसना तो बिल्कुल मना है, हमेशा काम में लगा रहना चाहिए ,अगर कभी रसोई का काम खत्म हो जाए तो सीना परोना चाहिए" ऐसी मानसिकता थी उन दिनों लड़कियों के बारे में।
पर पुष्पा ऐसी नहीं थी इसलिए मेरे घर के लोग उसे ज्यादा पसंद नहीं करते थे ,पर मेरी बात और थी, मुझे पुष्पा बहुत अच्छी लगती थी। वह मुझे फिल्मों की कहानियां भी सुनाया करती थी। कभी-कभी लड़कों की बातें भी हम चुपचाप धीरे धीरे करते थे ।
एक बार पुष्पा और मैं बाजार जा रहे थे ,मैं उसके साथ कभी-कभी बाजार चली जाती थी अपनी छोटी मोटी चीजें चीजें लेने के लिए, बाजार में मुझे दार जी मिल गए ,उन्होंने मुझे जैसे ही देखा मैंने दो चोटियों का एक करना शुरू कर दिया, पर घर आकर मुझे वह डांट पड़ी कि मैं कभी भी जिंदगी में भूल नहीं सकती।
उस दिन मुझे अपने मां और पिताजी बहुत याद आए। मैं सोचती रही कि क्या वह भी ऐसे ही हैं, फिर सोचा जहां प्यार है वही तो डांट फटकार भी है, पता नहीं क्यों जरा सा भी डांट फटकार होती या किसी भी तरह का झगड़ा तो अपने असली मां-बाप याद आ जाते, मन में यही बात उठती, अगर यह मेरे सगे मां-बाप होते, तो शायद यह नहीं करते ,वह नहीं करते ,यह मैं हमेशा भूल जाती कि कितना प्यार करते हैं वह मुझसे, मेरी एक एक बात को पत्थर की लकीर समझते हैं।
इसी तरह बड़ी होती गई और एक सिख परिवार में मेरी शादी हो गई ।वह तीन साल मेरे जीवन के सुनहरे साल थे ,जब बलजीत से मेरा ब्याह हुआ। बहुत ख्याल रखते थे मेरा बलजीत, जो मैं कहती वही करते थे ,दसवीं कक्षा तक ही पड़ी थी मैं, अठारह साल की थी मैं और बलजीत अठ्ठाइस  साल के, तो क्या हुआ अगर वह मुझसे दस साल बड़े थे,लगते तो चौबीस के ही थे ।
बलजीत के घर एक मां भी थी, जो मुझे बहुत प्यार करती थी ।
एक दिन बलजीत मुझे एक पार्टी में ले गए, गोरी गोरी मेमे, झिलमिलाते कपड़े ,चमकती रोशनियां, सब कुछ एक स्वप्न की तरह लग रहा था। वह पार्टी हमारी शादी की खुशी में ही की गई थी ,जब मैं और बलजीत पार्टी में दाखिल हुए तो हम पर फूलों की वर्षा होने लगी ।अंदर आते ही सब मेहमानों ने हमें हाथों हाथ लिया। मैं अपने आप को किसी राजकुमारी से कम नहीं समझ रही थी। बलजीत ने मुझे सब से मिलाया, सारे शहर के गणमान्य व्यक्ति वहां पर उपस्थित थे ,बलजीत सब से मुझे मिला रहे थे," मनु यह है हमारे शहर के डीएसपी, यह कपड़ा मिल के मालिक," और भी न जाने क्या क्या। मैं तो सिर्फ सपनों में खोई हुई थी और सोच रही थी यह सपना है या सच।
बलजीत का व्यापार काफी देशों में फैला हुआ था। जब भी वह बाहर जाते कुछ ना कुछ  जरूर लाते थे ।आज भी उनके लाए हुए बेल्जियम के हीरे के कर्ण फूल मेरे मैंने अपने कानों में डाले हुए हैं ।जब मेरी शादी हुई थी तो मुझे जेवरों से लाद दिया गया। मेरी सास मुझसे कहती ," इधर आ तीये (बेटी)  तेरी बांगड़ियां ( चुडीया)मैं साफ कर दूं और मैं छोटी सी दुल्हन उनकी गोद में समा जाती ।
घर में यह हाल था कि एक-एक रोटी ऊपर रसोईघर से नीचे वाले कमरे में लाई जाती और नौकरों को सख्त हिदायत थी कि जब मैं, मांजी और बलजीत खाना खाने बैठे, और रोटी थाली में पहुंचे,  तब तक वह रोटी फूली रहे।
इसी सुख, एश्वर्य और अपनेपन में तीन साल कब गुजर गए, पता ही नहीं चला। इन तीन सालों में मैं दो बच्चों की मां भी बन गई, बड़ी जसप्रीत और छोटा सुरेंदर।
कहते हैं ना होनी को कोई नहीं टाल सकता, अगर दुख के बाद सुख आए तो अच्छा लगता है ,परंतु अगर सुख के बाद दुख आए तो क्या किया जाए। ऐसा ही मेरे साथ हुआ, सुख के समंदर में गोते लगा रही थी ।मैं वाहेगुरु से प्रार्थना करती," प्रभु मुझ पर अपनी कृपा बनाए रखना" पर शायद उन्होंने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी या शायद कर्मों के फलों का भुगतान करना था मुझे ,एक दिन खबर आई की बलजीत को बिजनेस में कुछ नुकसान हो गया है, उसी का पता लगाने के लिए वह दिल्ली रवाना हो गए ,लेकिन वह उनकी अंतिम यात्रा थी, वह गंतव्य तक पहुंचे ही नहीं, उन्हें रास्ते में ही दिल का दौरा पड़ गया ,जब मुझे यह खबर मिली तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई, आंखों के आगे अंधेरा छा गया, ऐसा लगा जैसे दुनिया घूम गई है ,मुझे झांसी स्टेशन पर जाना पड़ा।
मैंने बच्चों को मां जी के हवाले किया और अकेली ही चल पड़ी ,उस वक्त इतने नौकर और रिश्तेदार थे पर किसी को भी लेने का ध्यान ही नहीं आया। किसी को भी खबर नहीं की और चल पड़ी। बाद में दार जी भी पहुंच गए।
मुझे लगता है फिल्मों या किस्से कहानियों में जो कुछ भी घटता है वह काफी हद तक सच भी होता है ।शायद फिल्मकार जिंदगी से ही कुछ घटनाएं लेकर फिल्में बनाते होंगे ।
कहानीकार अपने आसपास की घटनाओं का वर्णन अपनी कहानियों में करते होंगे ,क्योंकि जो कुछ भी मेरे साथ हो रहा था, ना तो वह फिल्म थी और ना ही कहानी, वह सिर्फ एक सच्चाई थी जिसे मैंने झेला है, जिसे मैंने सहा है।
उस दिन आसमान भी रो रहा था, मेरी हालत पर, क्योंकि बरसात रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी, मैंने अपनी जिंदगी में इतनी बारिश कभी नहीं देखी, आसमान लाल रंग का था जैसे तूफान आया हुआ था, ना सिर्फ मेरी जिंदगी में ,बल्कि हकीकत में भी ।
बलजीत छः फुट लंबे थे, इतना बड़ा आदमी और रेल के डिब्बे में मौत ।इतनी बड़ी अनहोनी, क्या करूं ,कुछ समझ में नहीं आ रहा था ,अचानक मैं बहुत बड़ी हो गई ,एकदम से साठ साल की बुढ़िया बन गई, सारी बात समझ में आ गई, यही लग रहा था अब इनकी लाश को अपने शहर कहां लेकर जाऊंगी, यहीं पर अंतिम संस्कार कर देती हूं, उस दिन बलजीत को कंधा देने के लिए चार आदमी भी नसीब नहीं हो रहे थे ।
इतनी बारिश हो रही थी कि इंसान तो क्या कोई परिंदा भी नजर नहीं आ रहा था, बड़ी मुश्किल से एक दो आदमी मिले। अंजाना शहर, अनजाने लोग, दो मजदूर से दिखने वाले लोग नजर आए, उनको बड़ी मुश्किल से लेकर आई थी , तीसरे दार जी और चौथी मै।
मैंने बड़ी हिम्मत से अपने पति को कंधा दिया और श्मशान घाट ले गई ।अब सारा सामान इकट्ठा करना था। बड़ी मुश्किल से सब कुछ इकट्ठा हुआ, फिर चिता में बलजीत को लिटाया गया तो लकड़ियां गीली होने के कारण आग ही नहीं लग रही थी। चिता में अग्नि कौन दे, यह प्रश्न भी था मेरे सामने ।फिर मैंने खुद ही चिता में अग्नि दी, लेकिन लकड़ियों में आग ही नहीं लग रही थी फिर चिता के ऊपर न जाने क्या-क्या डाला गया, और आग लगी और बलजीत का शरीर ब्रह्मांड में मिल गया ।
इतना सब कुछ करते हुए एक बूंद आंसू मेरी आंखों से नहीं निकले थे ।लगता था जैसे मैं पत्थर की हो गई हूं। बाद में सब कर्म कांड करके वापस लौटी, तो अपनी बूढ़ी सास की गोद में," जो खुद पलंग से नहीं हिल सकती थी" सर रखकर इतना रोई जैसे आंसुओं का सैलाब आ गया हो ।
मेरी दुनिया लुट चुकी थी ,बलजीत नहीं रहे ,मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था ,हालांकि अपने हाथों से उनका संस्कार करके आई थी, बच्चे बहुत छोटे थे ,उन्हें पता ही नहीं था कि उनकी मां क्यों रो रही है ।
बिजनेस में भी घाटा पड़ चुका था। ऐसा लग रहा था ,दुनिया में कुछ भी नहीं बचा है। अब कैसे जिऊंगी, क्या करुंगी, जी भी पाऊंगी ,या नहीं।
दार जी आए थे मुझे लेने अपने घर ले जाने के लिए ,पर मैं नहीं गई, सोचा अपनी मां जैसी सास को छोड़ कर कैसे जा सकती हूं ।और उनके घर में शन्नो बुआ पहले ही विधवा बन कर बैठी है,अब मैं कैसे जाऊं।
एक दुख तो वह पहले ही सह रहे थे अब क्या मैं भी अपने दो छोटे बच्चों को लेकर उनके पास चली जाउं, नहीं यह मुझसे नहीं होगा।
समय का चक्र चलता रहा, वक्त को किसी से भी कुछ नहीं लेना देना होता है ,वह अपनी रफ्तार से आगे बढ़ता ही रहता है, किसी के जीवन में चाहे दुख आए या सुख, वक्त की गति निरंतर आगे बढ़ती ही रहती है, ना ही वो ठहरता है, ना ही रूकता है ,ना ही पिछे मुड़कर देखता है, सिर्फ आगे बढ़ना ही उसकी नियति है, पर हम इंसान क्या करें, हमारा वक्त ठहर जाता है, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेता।जिस प्रकार ठहरे पानी से बदबू आने लगती है, उसी तरह ठहरा वक्त भी फोड़ा बन जाता है ,जिस में मवाद निकलने लगता है।
इसी तरह समय व्यतीत होता गया। घर में जो जमा पूंजी रखी थी, वह सब खर्च हो गई, व्यापार में पहले ही घाटा पढ़ चुका था, सब कुछ बर्बाद हो गया था ,सिर्फ एक मकान बचा था ,जिसमें हम रह  रहे थे ।
बलजीत के नाम को बट्टा ना लगे ,इसके लिए मैंने अपने काफी गहने बेचकर उनका कर्ज भी चुकाया था। दार जी यह सदमा सह नहीं सके और चल बसे ।कुछ दिन बाद बेबे भी नहीं रही।
बलजीत के जाने के बाद दार जी टूट से गए थे और उनकी मजबूरी का फायदा शन्नो बुआ और कुलवंत ने उठाया और सारा काम संभाल लिया था। जब तक दार जी थे, मेरी सहायता करते रहते थे ।कुछ उनकी मदद से और कुछ मेरे गहनों से मेरी गृहस्ती चल रही थी‌
अब सारे रिश्तेदार भी कन्नी काटने लगे थे, लेकिन दार जी की मृत्यु के बाद मैं बिल्कुल अकेली रह गई थी ‌। मांजी की दवाइयां, घर का खर्च, सब कुछ बड़ी मुश्किल हो गया था, ऊपर से बच्चे भी बड़े हो रहे थे ,उनको भी स्कूल में डालना था, सब कैसे होगा, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था।
कुछ तो करना था, ऐसे तो जीवन नहीं चलता। मैंने घर से बाहर निकल कर काम करने की सोची। सबसे पहले मां जी को समझाना था, जो कि बहुत ही मुश्किल काम था उनको  उनको यह बात हजम ही नहीं होनी थी कि उनके घर की कोई बहू या बेटी घर से बाहर जाकर कुछ काम करें। अपने जीवन काल में बस सिर्फ बग्गी (तांगे) में बैठकर ही घर से बाहर निकलती थी, वह भी  पर्दे वाली ,फिर वह मुझे घर से बाहर कैसे जाने देती। मर्दों की दुनिया में बाहर जाकर काम करना मेरे लिए भी मुश्किल था, लेकिन मांजी बहुत ही समझदार निकली ,वक्त के साथ बदल गई थी उन्हें समझ आ गया था कि अब घर में कमाने वाला कोई नहीं रहा है ,इसलिए मुझे ही यह जिम्मेदारी लेनी पड़ेगी।
मैं घर से बाहर काम करने को निकल ही पड़ी, ना  मुझमें हौसला था, ना ही आत्मविश्वास ,ना ही मैं ज्यादा पढ़ी लिखी थी, सबसे पहले मैंने  घर-घर जाकर सिलाई मशीन बेची ।
उन दिनों नया-नया वाशिंग पाउडर बाजार में आया था, मैंने घर- घर जाकर वॉशिंग पाउडर भी बेचा,।
फिर मैं पढ़ने के लिए  स्कूल में भर्ती हो गई, फिर  कॉलेज  गई।
दुपट्टा कमर में खोंस कर मै पीटी करने लगी, एक,दो तीन चार, पांच, छः,सात,आठ,
आठ,सात, छः,पांच,चार,तीन, बदली कर।
ना जाने यह सिलसिला कब तक चलता रहा और देखते-देखते मैं एक मास्टरनी बन गई ।
मेरी जिंदगी एक ढर्रे पर चलने लगी।घर से स्कूल और स्कूल से घर ,बच्चे ,मां जी बस यही सब कुछ रह गया था जीवन में।
देखते ही देखते सारी उम्र बीत गई। बालों में सफेदी झलकने लगी ,सारी उम्र संघर्ष करते बीत गई ,मन में कभी भी अपना ख्याल नहीं आया। अपने लिए जीना तो कब का छोड़ दिया था, जी रही थी तो सिर्फ अपने बच्चों के लिए ।
जसप्रीत और सुरिंदर दोनों ही बच्चे, अपने बाप पर गए हैं, लंबे, ऊंचे, गोरे, चिट्टे सुरिंदर को देखकर तो आंखें ही नहीं ठहरती है। लगता है मैंने अपनी तपस्या का फल पा लिया है ।
माजी नहीं रही, लेकिन जब तक वह जिंदा थी, हमेशा मुझसे कहती थी कि मैं दूसरी शादी के बारे में  सोचूं।
मुझे आश्चर्य होता था कि इतनी पुरानी सोच रखने वाली महिला के विचार इतने आधुनिक कैसे हो सकते हैं ।पर मैं हमेशा यही कहती थीं," नहीं मांजी अब नहीं ,अगर किस्मत में सुख होता तो मिल जाता"
जसप्रीत की शादी हो गई थी ।वो विदा होकर अपने घर चली गई।रह गए सुरेंद्र और मैं।
मैं अभी भी स्कूल की मास्टरानी ही थी ।
अब सुरिंदर की भी शादी करनी थी, उसकी भी नौकरी अच्छी कंपनी में लग गई थी, अच्छे-अच्छे घरों से रिश्ते आ रहे थे, उसके लिए, पर मैं अपनी मर्जी की लड़की लाना चाह रही थी कि एक दिन लावा फट पड़ा।
सुरिंदर ने ऐलान कर दिया कि वह अपने साथ काम करने वाली लड़की चांदनी से ही शादी करना चाहता है। मैं मन मार कर रह गई। फिर मैंने सोचा शायद सुरेंद्र की पत्नी के रूप में चांदनी ही ठीक होगी, मैंने हामी भर दी और चांदनी बहू बनकर हमारे घर में आ गई।
कुछ दिन तो बहुत अच्छी तरह बीते, मम्मी जी मम्मी जी कहने वाली चांदनी मुझे भी बहुत अच्छी लगी ।
लेकिन मुझे नहीं पता था मेरी किस्मत हमेशा की तरह मुझे फिर धोखा देगी, पर धोखा किस्मत ने नहीं ,शायद मेरी औलाद ने मुझे दिया था ।
जब मेरे माता-पिता ने मुझे दूसरों के हवाले किया तो मैं बहुत छोटी थी, नासमझ थी ,इतनी छोटी कि मैं अपने जन्मदाता से पूछ भी नहीं सकती थी कि मेरा कसूर क्या है, क्यों मेरे वजूद को अपने आप से अलग कर रहे हो, कोई मासी, नानी ,चाची  यह नहीं कह सकते कि मनु हमारी तरह लगती है। लेकिन बेबे और दार जी ने अपने प्यार से इस घाव पर मरहम लगाया ।
जब बलजीत नहीं रहे तब भी मैं पत्थर की तरह कठोर बनी रहे ।उनके साथ बिताए हुए पांच वर्ष का सुख ,ऐश्वर्य और समृद्धि के साथ मैंने पच्चीस साल बिता दिए ।सारा जीवन संघर्ष करती रही। बच्चे को पालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उनकी छोटी-छोटी ख्वाहिशें पूरी करते हुए कब जीवन की संध्या आ गई, पता ही नहीं चला। सारा जीवन गृहस्थी का भार अकेले उठाया और उफ तक नहीं करी, इसी आशा में कभी तो मेरा बेटा बड़ा होगा और कहेगा ,"मां तू थक गई है आज रात की नींद आराम से सो जा " वो मेरा सहारा बनेगा ।
लेकिन आज की शाम बहुत भारी है सुरेंद्र को अपने कंपनी में प्रमोशन मिला है और वो विदेश जा रहा है, सिर्फ अपनी पत्नी के साथ। उसने एक बार भी नहीं कहा," मां तू भी चल मेरे साथ "

इतना तो मैं कभी भी नहीं टूटी, उस वक्त भी नहीं जब पहली बार मुझे पता चला था कि मैं दारजी की बेटी नहीं हूं, उस वक्त भी नहीं जब बलजीत की चिता की अग्नि मैंने दी थी ।आज मैं टूट गई पत्थर भी पिधलते हैं ,आज मुझे पता चला ।लेकिन मैं एक नायिका हूं अभी भी  मैं टूटूंगी नहीं, फिर से खड़ी होंगी।

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