शुभ कर्मों के फल स्वरुप मिले सुख भोगने के लिए भी शरीर धारण करना आवश्यक है । फल भोगने के लिए साधन देह है ,,, देह धारण करने पर ही फल भोग सकते हैं । इस शुभ या अशुभ कर्म के फल भोगने के लिए देह धारण करनी ही पड़ेगी ,,, और जब तक जन्म मरण का चक्कर चलता रहेगा ,तब तक मोक्ष की प्राप्ति हो सकती नहीं।
देह धारण करना ही ना पड़े, ऐसी परिस्थिति का नाम ही मोक्ष है, और जब तक शुभ या अशुभ कर्मों के ढेर संचित कर्म में जमा है और संपूर्ण रूप से उनका भोग नहीं लेते तब तक यह संसार चक्र चलता ही रहेगा । देह धारण करना पड़े यही सच्चा बंधन है।
शुभ कर्म के फल स्वरुप सुख भोगने के लिए शरीर धारण करना ही पड़ेगा ,, वह सोने की बेडी है ,,, और अशुभ कर्म के फल स्वरुप दुख भोगने के लिए शरीर धारण करना पड़ेगा वह लोहे की बेडी है,,, किंतु दोनों रीति से शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म उसके फल भोगने के लिए जीव को धारण करना ही पडता है ।
और उसी तरह दोनों शुभ या अशुभ कर्म , याने की कर्म मात्र जीव को बंधन कारक है और वह बंधन जीव को जन्म मरण की बेड़ी पहना देता है, फिर वह बेड़ी सोने की हो या लोहे की हो ,,, किन्तु आखिर बंधन तो रहेगा ही।
सुपात्र को दान करेंगे उसके फल स्वरुप सुख भोगने के लिए शरीर धारण करना ही पड़ेगा और कुपात्र को दान करेंगे तो उसके फलस्वरूप दुख भोगने के लिए देह धारण करना ही पड़ेगा । दोनों प्रकार से उल्टी -सुल्टी संसार चक्की घूमती रहती है और उसमें जीव मात्र पीसा जा रहा है।
मोक्ष मिलता नहीं क्योंकि नए-नए क्रियमाण कर्म वह सतत करता रहता है, और उसमें से जो तत्कालीन फल देते नहीं ,,, ऐसे कर्म संचित कर्मों में जमा हो जाते हैं। जिसके अनेक हिमालय जैसे जबरदस्त ढेर हो गए हैं ।
उसमें से जैसे-जैसे संचित कर्म पकते जा रहे हैं, और प्रारब्ध बनते जाते हैं , उतने ही फल प्रारब्ध भोगने के लिए इसके अनुरूप जीव शरीर धारण करता रहता है।*
उस जीवन दरमियान फिर दूसरे अनेक जन्म लेने पड़े उतने नये क्रियमाण कर्म खडे करते जाते हैं। इस तरह यह संसार चक्र का विष-चक्र अनादि काल से चलता आया है,,, वह अनंत काल तक चलता रहेगा ।
महर्षि पतंजलि कहते हैं
जहां तक कर्म रूपी मूल है, तब तक शरीर रूपी वृक्ष उत्पन्न होगा,,, और उसमें जाति ,आयु और भोग रूपी फल लगेंगे ही।*