*त्यागी और अहंकारी*
*एक सेठको धनका और नाम का अहंकार था। सेठ ने सोचा कि मैं मेरी मां की ऎसी सेवा करूं जो सबको याद रहे। मेरा नाम सारी दुनिया में फैल जाए।यह सोचकर उसने एक सोने की चौकी (टेबल) बनाई। चौकी बहुत बड़ी बनाई थी। एक दिन पूजा का समय रखा। अपने सारे सगे संबंधी और मित्रोंको परिवार सहित आमन्त्रण देकर पंडितजी को बुला लिया।*
*सारा कार्यक्रम विधिवत चला और जब कार्य संपन्न होने को आया तो सेठ उठा और बोला कि 'आज मैंने अपनी मां की अर्चना की है। अब अर्चना संपन्न हो रही है और मैं एक घोषणा करने जा रहा हूं कि जिस चौकी पर मेरी मां बैठी है, वह सोनेसे बनी चौकी मैं पंडितजी को देता हूं। सेठ ने चौकी पंडितजी को दे दी, पर आगे अहंकार से बोले~पंडित जी! इतना बड़ा दानी कोई मिला आपको दुनिया में आज तक। जो सोनेसे बनी चौकी दान में देता हो?*
*सारे लोग कभी सेठको तो कभी चौकीको तो कभी पंडितजी देखते रह गए। लेकिन पंडितजी भी बड़े स्वाभिमानी थे, त्यागी थे। अगर लोभी होते तो सह लेते।वह खडे हुए।उन्होंने अपनी जेब से एक रूपया निकाला और चौकी पर रखकर बड़ी विनम्रतापूर्वक बोले~सेठ जी! इस चौकी पर एक रूपया अघिक रखकर आपको ही लौटा रहा हूं। मैं आपसे पूछना चाहता हूं सेठजी क्या आपको कोई त्यागी मिला? आपके इतने बड़े दानको लेनाभी नहीं चाहता हो? और पंडितजी सभीको प्रणाम करके घरसे बाहर निकल गए।*
*सेठ नजरें झुकाये मूर्ति वत खड़ा रह गया दान कभी भी अहंकार से नहीं गुप्त रूपसे करना चाहिए तभी उसका पूर्ण फल मिलता है।*
*मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता है~भगवान ही दाता हैं।।*