*बहुरूपिया का ज्ञान*
सूर्यनगर में धनंजय नाम का एक बहुरुपिया रहता था अपनी रूप बदलने की कला को प्रदर्शित कर वह लोगों को प्रसन्न करता था और अपनी जीविका चलाता था| इस कला में वह इतना दक्ष था कि कई बार लोग उसे पहचान नहीं पाते थे।
एक बार सूर्यनगर में एक विशाल मेले का आयोजन हुआ। विभिन्न कलाकारों ने वहां अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। तभी जनता ने देखा कि स्वयं महामंत्री मंच पर खड़े हैं और कुछ कहना चाहते हैं| महामंत्री के निकट शीघ्र ही भीड़ एकत्र हो गयी तब महामंत्री बोले “मैंने सभी कलाकारों का प्रदर्शन देखा और अपने राज्य में इतनी प्रतिभाएं छिपी हुयी है यह देखकर मुझे अत्यंत हर्ष हुआ। मै महाराज से कहूँगा कि वह भी यहाँ आये और कलाकारों को स्वयं पुरुस्कार प्रदान करें।
सारा पंडाल हर्ष ध्वनि से गूंज उठा तभी महामंत्री ने अपने ऊपरी वस्त्र उतार फेंके| अब जनता के समक्ष साधारण कपड़ो में धनंजय खड़ा था क्षण भर सभी हतप्रभ रह गये फिर तो धनंजय के उपर मानो मुद्राओं की वर्षा होने लगी। इस कार्यक्रम के पश्चात एक विद्वान व्यक्ति जो धनंजय से मिला और उसने राजा के समक्ष अपनी कला प्रदर्शित करने को कहा। धनंजय को भी यह सुझाव पसंद आया।
एक मोहिनी स्त्री का वेश धारण कर धनंजय दरबार में जा पहुंचा। सभी दरबारी और राजा उसके रूप पर मुग्ध हो गये। तत्पश्चात धनंजय ने अपना वास्तविक परिचय दिया| राजा भी उसकी कला से प्रसन्न हुए और उसे कुछ स्वर्ण मुद्राए देकर नित्य एक नया रूप धरकर दरबार में आने को कहा।
अगले दिन धनंजय एक सन्यासी का वेश धरकर दरबार में गया। उसने शास्त्रों की और दर्शन के गुणों की व्याख्या की और ईश्वर की महत्ता से सबका परिचय कराया। राजा उसके वास्तविक से लगने वाले रूप से अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे सौ स्वर्ण मुद्रायें पुरुस्कार में देनी चाही लेकिन धनंजय ने कहा “मैं सन्यासी हूँ मुझे धन से क्या प्रयोजन और शांत क़दमों से दरबार से बाहर निकल गया”
सन्यासी के बाद धनंजय ने नर्तकी का रूप धारण कर नर्तक के रूप में उसने लय और ताल पर ऐसा समधुर नृत्य प्रस्तुत किया कि सभी दंग रह गये| राजा ने उसे पुनः सौ मुद्राए पुरुस्कार में देनी चाही लेकिन धनंजय ने कहा “हे महाराज आपका यश सुनकर मै अत्यंत दूर से आयी हूँ। आशा है आप मेरी कला का उचित सम्मान करेंगे”
राजा क्रोधित होकर बोला “यह क्या मजाक है? कल तो तुमने एक भी स्वर्ण मुद्रा नही ली और आज सौ भी कम पड़ रही है एक ही दिन में व्यक्ति का लालच बढ़ते मैंने कभी नही देखा”
धनंजय ने धीरे से मुस्कुरा कर शांत स्वर में उत्तर दिया “महाराज कल मैंने एक सन्यासी का रूप बनाया था| अत: सन्यासी स्वभाव के अनुरूप ही व्यवहार किया| सन्यासी को माया से कोई मोह नहीं होता किन्तु एक नर्तकी तो विषयों की दासी है| नर्तकी अपनी कला का प्रदर्शन कर यही चाहती है कि अधिकाधिक धन प्राप्त हो अत: आपकी सौ स्वर्ण मुद्राए पर्याप्त नही है “ धनंजय के उत्तर से महाराज अत्यंत प्रसन्न हुए और उसे पांच सौ मुद्राए प्रदान की।
इन्सान को अपने चरित्र के समान ही व्यवहार करना चाहिये तभी वह सफल है जैसे अगर आप एक साधू होकर लोभ, मोह और क्रोध रखेंगे तो आप साधू कहलाने लायक नही है और अगर एक नर्तकी अगर सादा व्यवहार रखेगी तो उसका जीवन कैसा चलेगा| उसी प्रकार इन्सान को अपने पद के अनुसार ढालना चाहिए जैसे अगर आप एक कम्पनी में कर्मचारी है तो आपको बॉस की आज्ञा मानने का गुण होना चाहिए और अगर आप बॉस है तो आपको आदेश देनें का गुण होना चाहिए| अगर आप इनके विपरीत काम करते है तो न आप एक अच्छे कर्मचारी और ना ही अच्छे बॉस बन सकते है।