जीवन का सत्य*
हमारी चिंताओं का मूल कारण हमारे मन में उठने वाली "कल की अनिश्चितता" है।
*हम बार- बार "कल क्या होगा?" इस बारे में सोच- सोच कर अपने वर्तमान को बर्बाद करने लगते हैं।
दरअसल... हमें कल क्या होगा या कैसे होगा...! इसे सोच कर चिंतित होने के बजाय यह सुनिश्चित करें कि, "कल के लिए हमें आज क्या और कैसे करना है" तो हम अपनी चिंताओं को दूर कर सकते हैं...!!
*जिंदगी में जब कभी अपना रास्ता भटक जाएं तो, चिंतित होकर बीच रास्ते में न रुकें...रास्ता भटकना गुनाह नहीं है... ग़ुनाह बीच रास्ते में रुक जाना है...!
*पूर्णतया शांत मन- मस्तिष्क से अपने लिए एकबार फिर से "सही दिशा" की तलाश करना चाहिए, और फिर से अपनी नई मंजिल की ओर बढ़ चले... थोड़ा समय जरूर ज्यादा लगेगा परंतु आप अपनी मंजिल तक अवश्य पहुचेंगे।
यो ब्रह्मा स हरि: प्रोक्तो
यो हरि: स महेश्वर:।
या काली सैव कृष्ण: स्याद
यः कृष्ण: सैव कालिका।
देवदेवीं समुदिदश्य न
कुर्यादन्तरं क्वचित।
तत्तभदेदो न मन्तव्य:
शिवशक्तिमयं जगत।।
जो ब्रह्मा हैं, वे ही हरि हैं, जो हरि हैं, वे ही महेश्वर हैं। जो काली हैं, वे ही कृष्ण हैं और जो कृष्ण हैं, वे ही काली हैं। देव-देवी को लक्ष्य करके मन में भेदभाव करना उचित नहीं है। देवशक्तियों को चाहे कितने भी नाम व रूप दिखाई पड़ें, वस्तुतः सभी एक ही हैं और यह जगत शिवशक्तिमय ही है।
गलती "करने के लिये.."कोई भी समय "सही" नहीं, और...गलती "सुधारने के लियें.."कोई भी समय "बुरा" नहीं!
अपनी प्रतिष्ठा का बहुत अच्छे से ख्याल रखे, क्योंकि एक यही है जिसकी उम्र आप से ज्यादा है!
कपड़े" और "चेहरे" अक्सर झूठ बोला करते हैं
*"इंसान" की असलियत तो,"वक्त" बताता है..!
न यावद् उमानाथ पादारविन्दम।भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।।
न तावद् सुखं शान्तिसन्तापनाशं।
प्रसीद प्रभो सर्व भूतादिवासम्।।
जब तक पार्वती के पति आपके चरण कमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक और न ही परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न ही उनके तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर ( ह्रदय में ) निवास करने वाले प्रभो ! प्रसन्न होइए।।
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥
माता, पिता और मित्र ये तीनों स्वभावतः ही हमारे हित के लिए सोचते हैं, वे हमारे हित करने के बदले में किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं रखते। इन तीनों के सिवाय अन्य लोग यदि हमारे हित की बात सोचते हैं तो वे उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ अपेक्षा भी रखते है।।
"जिस हवा में फूल अपने पूरे सौन्दर्य के साथ नहीं खिल सकता, वह हवा अवश्य दूषित हवा है। जिस समाज में मनुष्य अपने व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं कर सकता, वह समाज भी अवश्य दूषित समाज है।"
यहां परम कल्याण की प्राप्ति मुख्यता से मनुष्यों के लिए ही बताई गई है, देवताओं के लिए नहीं कारण कि देवयोनि अपना कल्याण करने के लिए नहीं बनाई गई है। मनुष्य जो कर्म करता है, उन कर्मों के अनुसार फल देने, कर्म करने की सामग्री देने तथा अपने अपने शुभ कर्मों का फल भोगने के लिए देवता बनाए गए हैं।
वे निष्काम भाव से कर्म करने की सामग्री देते हों, ऐसी बात नहीं है। परंतु उन देवताओं में भी अगर किसी में अपने कल्याण की इच्छा हो जाए, तो उसका कल्याण होने में मना नहीं है अर्थात अगर कोई अपना कल्याण करना चाहे तो कर सकता है।
जब पापी से पापी मनुष्य के लिए भी अपना उद्धार करने की मनाही नहीं है तो फिर देवताओं के लिए जो कि (पुण्य योनि है) अपने उद्धार करने की मनाही कैसे हो सकती है ? ऐसा होने पर भी देवताओं का उद्देश्य भोग भोगने का ही रहता है, इसलिए उनमें प्राय: अपने कल्याण की इच्छा नहीं होती।
जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं,
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं,
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्॥
अच्छी संगति जीवन का आधार हैं अगर अच्छे मित्र साथ हैं तो मुर्ख भी ज्ञानी बन जाता हैं झूठ बोलने वाला सच बोलने लगता हैं, अच्छी संगति से मान प्रतिष्ठा बढ़ती हैं पापी दोषमुक्त हो जाता हैं । मिजाज खुश रहने लगता हैं और यश सभी दिशाओं में फैलता हैं, मनुष्य का कौन सा भला नहीं होता ।।