*!! होनहार बालक !!*
गांव सादीपुर एक छोटा सा गांव था |
उसमें चंदन चौधरी रहा करते थे | वे स्व्भाव से अत्यंत सीधे-साधे, इमानदार और सरल प्रवृत्ति के व्यक्ति थे | उनकी इन्हीं बातों से प्रभावित होकर गांव वालों ने उन्हें अपना मुखिया चुन लिया था |
गांव का मुखिया होने के कारण वहां की खेती और किसान अपनी भूमि का सरकारी लगान आदि उनके पास जमा करा देते थे |
जब गांव के सारे किसानों का लगान इकट्ठा हो जाता, तो वे इस कर को सरकारी खजाने में जमा कराने के लिए शहर जाते थे ।
उनके इस कार्य से सरकारी अधिकारी बड़ी प्रश्न रहते थे । और कचहरी में उनको काफी इज्जत और सम्मान दिया जाता था ।
चौधरी चंदन के परिवार में दो लड़के और दो लड़कियां थी । उन्होंने अपनी दोनों बेटियों की शादी कर दी थी तथा बड़ा बेटा अपने खेतों के काम में लगा रहता था । सबसे छोटा बेटा अभी कम उम्र का था उसका नाम उन्होंने दीपक रख रखा था ।
एक दिन चौधरी साहब लगान की रकम जमा कराने के लिए जब शहर जाने की तैयारी कर रहे थे, तो उनके बेटे दीपक ने उनके साथ शहर जाने की ज़िद की ।
पहले तो चौधरी साहब ने उसे ले जाने के लिए कुछ आनाकानी की, परंतु बेटे की ज़िद के सामने उन्हें अपने घुटने टेकने पड़े ।
वे उसे लेकर शहर की ओर चल दिए ।
गांव से शहर तक पैदल रास्ता था ।अंतः दोनों बाप बेटे हंसते बोलते चल दिए । सफर जल्दी ही तय हो गया ।
दोनों कचरी पहुंचे । आज वे समय से पहले ही कचरिया आ गये थे, इसलिए खजाने का कार्यालय खुला नहीं था । चपरासी झाड़ू लगा रहा था।
तब मुखिया जी अपने बेटे दीपक को कार्यालय दिखाने लगे ।
कार्यालय में लगी मेज-कुर्सियां तथा छत में लगे पंखे आदि दीपक के लिए अनोखी चीजें थी ।
वह प्रसन्न होता हुआ काफी देर तक कार्यालय को देखता रहा ।
अचानक दीपक को न जाने क्या सूझी कि वह अधिकारी कुर्सी पर जा बैठा ।
अपने बेटे की इस हरकत को देखकर मुखिया जी को गुस्सा तो बहुत आया, परंतु प्रत्यक्ष मैं कुछ नहीं कहा, बल्कि वह मन ही मन बुदबुदाने लगे- ‘उफ्फ! इस बच्चे ने तो गजब ही कर दिया!’ भयभीत होकर वे चारों तरफ देखने लगे ‘कहीं बच्चे की शरारत को किसने देख न लिया हो ।’
उन्होंने अपने मन में कहा ।
अधिकारियों की आने का समय तो हो ही गया था । तभी अचानक कार्यालय के अधिकारी आ पहुंचे ।
मुखिया जी को इस प्रकार व्यतीत होता देखकर वे हंस पड़े और फिर बोले – “मुखिया जी, नमस्ते ।”
मुखिया जी इतने भयभीत हो गए थे, कि वे अधिकारी के नमस्ते का उत्तर भी न दे सके ।
वे गिङागिङाकर बोले – “हजूर! बच्चा नादान है, क्षमा कर दें ।”
तभी दीपक कुर्सी से उसे का खड़ा हो गया और अधिकारी के चरण स्पर्श करता हुआ वह बोला- “चाचा जी राम राम ।”
‘राम राम बेटे ! खुश रहो । खूब पढ़ो लिखो ।” उन्होंने दीपक को दुआएं दी, फिर बोले – “मुखिया जी, आपका बच्चा नादान नहीं है । बड़ा चतुर है यह तो । इतना शिष्टाचार तो आजकल शहरी बच्चों में भी देखने को नहीं मिलता ।”
“यह तो आपकी कुर्सी बैठ गया था, साहेब । इसकी भूल के लिए मैं आपसे माफी चाहता हूं ।” मुखिया जी ने गिङगिङाकर कहा।
” इसकी जरूरत नहीं है मुखिया जी। उसने कोई अपराध नहीं किया है । मेरी कुर्ती तो बहुत मामूली है । हमारा देश तो प्रजातांत्रिक है । और प्रजातंत्र में तो प्रत्येक नागरिक को देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक की कुर्सी और पहुंचने का अधिकार है । भगवान करे यह भी पढ़ लिखकर सुयोग्य बने और किसी ऊंचे पद का अधिकारी बने ।” अधिकारी ने पुन: दीपक को सुयोग्य बनने की दुआएं दी ।
कुछ सोचने के बाद अधिकारी मुखिया जी की तरफ देखता हूं बोला – “देखिए मुखिया जी, इस बच्चे के मुंह से मेरे लिए ‘चाचा जी’ का संबोधन निकला था । यदि आपको कोई परेशानी न हो तो आप इसे मेरे पास छोड़ दें । मैं इसको को पढ़ाउगा । इस नाते मुझे भी संतान सुख मिल जाएगा ।”
अधिकारी के मुंह से ऐसी बात सुनकर मुखिया जी की हीरानी और बढ़ गयी । वे मन ही मन बोले – ‘हे भगवान ! मैं यह क्या सुन रहा हूं ।’
फिर वे जोर से बोले – “श्रीमान जी, आप बड़े आदमी हैं । मेरा बेटा गांव का पला गवार बच्चा है । पता नहीं, यह आपको संतुष्ट भी रख पाएगा या नहीं…?”
“इस बात को अब छोड़िए मुखिया जी ! मुझे अपने लिए जैसे बच्चे की चाहत थी, मैं समझता हूं कि इस बच्चे में मेरी चाहत के अनुरूप सारे गुण विद्यमान हैं । हां – अगर आपको यह स्वीकार न हो, तो वह अलग बात है । वरना मुझे तो किसी ऐसे बच्चे की ही जरूरत है । आप अपने परिवार वालों से पूछ ले, यदि भी मेरी इस बात से प्रसन्न हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं इसे अपने पास रखने में ।” अधिकारी ने मुखिया को सुझाव दिया ।
उसकी बात उसे सुनने के बाद मुखिया जी बोले – “श्रीमान जी, आप राह की इंट को इमारत के उच्च शिखर पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, भला इस सुझाव को कौन स्वीकार न करेगा । आप चाहे तो इसे अभी, इसी क्षण से अपनी सेवा में रख सकते हैं ।”
“नहीं, इस तरह नहीं । सब की स्वीकृति जरूरी है । हां, इतना मैं अवश्य चाहता हूं कि सरकारी कामकाज निपट जाने के बाद आप मेरे निवास पर चलिए, वहां मैं अपनी पत्नी को इस बच्चे से मिला कर उसकी स्वीकृति ले लूं । मुखिया जी, नाम क्या है इस बच्चे का ।”
‘मुझे दीपक कहते हैं, चाचा जी ।’ जवाब मुखिया जी के बजाय दीपक ने दिया ।
“शाबाश बेटे दीपक ! तुम चारो और से दीपक की तरह चमकोगे ।”अधिकारी उसे दुआओं पर दुआएं दिए जा रहा था ।
और मुखिया जी अधिकारी के इस निर्णय को अपना पुण्य प्रताप और दीपक का सौभाग्य समझ रहे थे ।
सरकारी कामकाज समाप्त करने के बाद मुखिया जी, दीपक सहित अधिकारी के घर पर चले गए ।
दीपक से मिलकर अधिकारी की पत्नी भी खूब खुश हुई । उन्होंने भी अपने पति के निर्णय को सहज स्वीकार किया।
अब दीपक उन्हीं के घर रहने लगा ।
वह उन अधिकारी को पिताजी उनकी पत्नी को माता जी कहकर पुकारने लगा । वे दोनों पति-पत्नी उसके मुंह से अपने आप को माता-पिता का संबोधन सुनकर मन ही मन प्रसन्न होते थे ।
उन्होंने दीपक को अपने सगे पुत्र की भांति पालना शुरू कर दिया ।
उसे एक अच्छे स्कूल में दाखिला करा दिया गया । दीपक भी स्कूल जाता और घर पर अपने माता पिता के आदेशानुसार काम करता ।
वह प्रत्येक कक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त करता चला गया ।
समय आगे बढ़ता रहा और दीपक दिन-प्रतिदिन बुलंदियों की ऊंचाइयों को छूता चला गया ।
जब भी वह स्कूल से अपना रिपोर्ट कार्ड लेकर घर आता, तो उसके नए माता-पिता बहुत प्रसन्न होते थे ।
वे जानते थे, उनका दीपक अवश्य ही इस बार भी प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ होगा ।
एक दिन वह आया जब दीपक ने एम. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की । तब उसके पिता ने से खूब शाबाशी दी । वह बहुत खुश हुए और उसकी खूब प्रशंसा की ।
दीपक ने भी अपने माता-पिता के चरण स्पर्श कर उनका खूब आशीर्वाद समेटा ।
फिर अधिकारी महोदय ने दीपक को एक नेक सलाह दी – “दीपक, अब तुम भारतीय प्रशासनिक सेवा {आई. ए. एस. } की परीक्षा में बैठना । उसके लिए अपनी तैयारी करो ।”
“ठीक है पिताजी ! मैं आज ही से उसकी तैयारी में जुट जाता हूं ।” दीपक ने शीघ्रता से कहा – “भगवान ने चाहा तो मैं आपकी इच्छा भी अवश्य पूरी करूंगा।”
फिर उसने आई. ए. एस. अधिकारी बनकर अपने माता-पिता का सपना भी साकार कर दिया।
*शिक्षा:-*
मित्रों! गुणी व्यक्ति बच्चों तक की गुणों को पहचान लेते हैं। गुणवान बच्चे वही हैं जो लगन, परिश्रम और इमानदारी से आदर्शवान लोगों का अनुकरण करते हैं।