संसार में कोई सुखी नहीं
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एक महात्मा अपने शिष्य के साथ किसी नगर में गए । वहाँ उन्होंने देखा कि, एक साहूकार इन्द्रभवन जैसे दिव्य महल में बैठा है, सैकड़ों सेवक आज्ञापालन को तैयार खड़े हैं, जोड़ी-गाडी द्वार पर खड़ी है, हाथी झूम रहे हैं, सामने सोने-चाँदी और हीरे-पन्नो के ढेर लग रहे हैं । महात्मा को देखकर सेठ ने अपने एक कर्मचारी को उनको भोजन कराने की आज्ञा दी ।
जब गुरु-चेले भोजन करने बैठे, तब चेला बोला – "गुरु जी ! आप कहते थे, संसार में कोई भी सुखी नहीं है । देखिये यह सेठ कैसा सुखी है ! इसे किस बात का अभाव है ? लक्ष्मी इसकी दासी हो रही है ।"
गुरु ने कहा – "जरा सब्र करो ।"
महात्मा ने जब भोजन कर लिया, तब सेठ से कहा - "सेठ जी ! परमात्मा ने आपको सभी सुख दिए हैं ।"
सेठ ने महात्मा को रोककर कहा – "महाराज ! मेरे समान इस जगत में कोई दुखी नहीं है । मुझे परमात्मा ने धनैश्वर्य सब कुछ दिया है, पर पुत्र एक भी नहीं । पुत्र बिना, ये सुख बिना नमक के पदार्थ की तरह बेस्वाद हैं । मेरा दिल रात-दिन जला करता है, कभी मुझे सुख की नींद नहीं आती । मैं इसी सोच में जला जाता हूँ कि पुत्र बिना इस संपत्ति को कौन भोगेगा ?"
सेठ की बातें सुनकर चेले ने कहा – "हाँ गुरु जी, आपकी बात पूरी तरह से सच है । संसार में कोई सुखी नहीं । कोई किसी बात से दुखी है तो कोई किसी दुःख से ।"
कहा भी गया है –
न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः ।
महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ।।
अर्थात् मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता । मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं । इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं ।
तात्पर्य यह कि इस जीवन में सुख का लेश भी नहीं है । जिनके पास अक्षय लक्ष्मी, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, मोटर, नौकर-चाकर, रथ-पालकी प्रभृति सभी सुख के सामान मौजूद हैं, राजा भी जिनकी बात को टाल नहीं सकता, जिनके इशारों से ही लोगों का भला-बुरा हो सकता है, ऐसे सर्वसुख संपन्न लोग भी, चाहे ऊपर से सुखी दीखते हों, पर वास्तव में सुखी नहीं हैं; भीतर-ही-भीतर उन्हें घुन खाये जाता है; किसी-न-किसी दुःख से वे जरजरित हुए जाते हैं ।