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ग़रीब

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वो राम की खिचड़ी भी खाता है, रहीम की खीर भी खाता है, वो भूखा है जनाब उसे, कहाँ मजहब समझ आता है। किसी न काफ़ी विचार-विमर्श के बाद इन लाइनों को गढ़ा होगा, लेकिन देश के सियासतदां तो धर्म औऱ मज़हबी राजनीति से ऊपर उठ सकें नहीं। तभी तो गरी

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