मेरे घर के सामने वाले लॉन में एक गौरैया कई दिनों से घोसला बनाने की कोशिश में जुटी थी। रोज एक-एक तिनका जोड़ कर वह अपना आशियाना बना रही थी। उसकी चहचहाहट का आदि होने लगा था मैं। उसमें अपने अक्स को देखता था। हम दोनों का संधर्ष एक ही जैसा तो था। मैं भी कई महीनों से नया ठिकाना ढूंढ रहा था। ऐसा लगता इस अंजान शहर में यह गौरैया मेरे लिए एक आशियाना बना रही है। आते-जाते मैं भी कुछ तिनके उसके घोसले में जोड़ देता। पर गज़ब का स्वाभिमान था उसमें। रोज मेरे जोड़े तिनके निकाल कर बाहर कर देती। एक नजर अपने घोसले को देखती फिर नए तिनके की खोज में उड़ जाती। उस दिन सुबह-सुबह ही बहुत शोर मचा हुआ था। रोज देर तक सोने वाला मेरा रूममेट भी तैयार हो चुका था। उसी से पता चला यह स्वछता अभियान की तैयारी का शोर था। इन सफाई पसंद लोगों को पता नहीं गौरैये के घोसले में क्या गंदगी नजर आई। घोसले का एक-एक तिनका जमीन पर बिखेर दिया। शाम को जब गौरैया लौटी तो उसका आशियाना उजड़ा हुआ था। वह रात भर सो नहीं पाई। डाल पर बैठे-बैठे अपने बिखरे आशियाने को निहारती रही। उसका दर्द ठीक वैसे ही था जैसे जिंदगी भर की मेहनत इस शहर के नाम करने के बाद भी एक दिन पार्टी के गुंडों ने हमें पराया बना दिया। सुबह तिनके के ऊपर चुना छिड़क कर एक झण्डा लहरा दिया गया। यह गणतन्त्र का झण्डा था, जिसकी जद में वह गौरैया नहीं आती थी।