मुझे नही पता था कि मेरे साथ ये सब क्यों हो रहा है । आज शाम को घर मे मम्मी से झगड़ा हो गया मैं बहुत बैचैन था मन कर रहा था कि कही बाहर चला जाओ घर को छोड़ कर यही सोचते सोचते कब 2 बज गया पता ही नही चला अब मेरा गुस्से से मुँह लाल हो गया था मैं अपने कमरे में गया और अपना कुछ सामान अपने पिठु बैग में डाले और घर से निकल लिया ।
मेरे घर हाइवे 14 किलोमीटर दूर था , परंतु मुझे पता ही नही था कि जाना कहा है मैं उस अनजाने जगह के लिये निकल लिया ।
रात के वक्त मेरे गाँव से हाइवे तक कोई साधन नही मिलते थे लेकिन हाइवे पर काफी वाहनों का आना जाना रहता था। मुझे अपने अंदर पता नही इतना विश्वास कहा से आगया की मैने उस 14 किलोमीटर रास्ते को पैदल ही चलने का सोच लिया मैं पैदल चल रहा था और इंतजार करते हुए आगे बढ़ रहा था कि कोई रास्ते मे जाने बाला मिल जाये जो मुझे हाइवे तक लिफ्ट दे दे।
लगभग में 5 या 6 किलोमीटर ही पैदल चला था मुझे एक बैलगाड़ी दिखाई दी, परन्तु मैने इस तरह की बैलगाड़ी अपने इलाके में पहली बार देखी थी ज्यादा तर मेरे यह दो बैलो की बैलगाड़ी होती है परंतु इसमे एक ही बैल था।
मैं चकित था , बैलगाड़ी मेरे ओर बहुत ही धीमी गति से बढ़ रही थी।
मैं खुश था कि कोई तो मिल गया जो मुझे हाईवे तक ड्राप कर देगा , तभी बैलगाड़ी मेरे पास आ पहुची थी ..
लेकिन उस एक बैल की बैलगाड़ी में 18 से 20 आदमी बैठे थे जो बाकई में चौकाने बाली बात थी । लेकिन मुझे उससे कुछ ज्यादा फर्क नही पड़ा क्योंकि मैं जाने के जल्दी में था ।
मैंने उसने बोला- " भईया! मुझे हाइवे तक छोड़ देंगे।"
परन्तु उनमे से किसी ने मुझे जबाब नही दिया, मुझे लगा सायद उन्होंने सुन नही पाया इसलिये मैने उनसे फिर कहा- "भईया ! मुझे हाइवे तक छोड़ देंगे।"
फिर भी उनमें से किसी न ही मुझे जबाब दिया और न ही मेरे तरफ देखा।
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ की ये लोग मेरी बातों पर ध्यान क्यों नही दे रहे है।
फिर मैंने बहुत ही तेज आबाज में बोला - "भईया ! मुझे हाइवे तक छोड़ देंगे।"
किसी ने कोई प्रतिक्रिया नही दी । मेरे साथ ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी से इतनी तेज बात करने पर किसी ने मेरी बातों पर प्रतिक्रिया न दी हो।
मुझे बहुत गुस्सा आया मैं बैलगाड़ी में उनलोगों की बिना इजाजत के पीछे बैठ गया , तभी सब लोग मेरी ओर घूर कर देखने लगे । मुझे सहसा ऐसा प्रतीत हुआ की कुछ मेरे साथ डरावना होने बाला है।
मैं उस बैलगाड़ी में पीछे बैठ गया । तभी उस व्यक्ति ने मुझसे बोला -" आप आगे बैठ जाओ !"
ये सब मेरे लिए आश्चर्यजनक था क्योंकि कुछ समय पहले ये लोग मेरी बातों पर कोई प्रतिक्रिया नही दे रहे थे फिर अब ऐसा क्या हो गया कि ये मुझसे बात करने के इतने इच्छुक हो गए ।
आज की रात कुछ तो अलग हो रहा था। मम्मी से कभी इतना झगड़ा नही हुआ , और होता भी था तो मुझे कभी बुरा नही लगता था । कई बार मम्मी से पिटे भी थे परंतु कभी घर से बाहर निकलने का मन मे विचार नही आया था।
मैं थोड़ा सहमा हुआ था इसलिये मैं बिना कुछ बोले आगे आकर बैठ गया । अब मेरे आगे सिर्फ एक बुजुर्ग बचे , 60 या 65 साल की कुछ उम्र रही होगी उनकी जो बैलगाड़ी को चला रहे थे।
मैं आगे देख रहा था । रास्ता बहुत ही खराब था , कुछ समय पहले ये पतला रास्ता था जो सही था परंतु ये रास्ता हाइवे से दूर एक कन्नौज शहर को जोड़ता था इसलिए सरकार ने इस रास्ते का चौड़ीकरण करने के आदेश दिए थे तो पूराना वाला रास्ता तोड़ कर उस पर छोटे छोटे पत्थरों को बिछाया गया था जो रास्ते को और भी भयानक बना रहे थे।
मुझे उन पत्थरों पर चल रही बैलगाड़ी की आवाज़ बिल्कुल शांत माहौल में चारो तरफ गूँजती हुई सुनाई दे रही थी।
मैंने सहसा उस आबाज का और उछलते पत्थरों का मिश्रण देखने के लिए पीछे घूमा तो बाकई ये किसी भयानक सपनो से कम नही था ।
उसमे बैठे सभी व्यक्ति मेरी तरफ टकटकी बांधे देख रहे थे जो इतनी रात में सुनसान रास्ते पर और भी डरावनी हो जाती है।
मैंने उनलोगों पर ध्यान नही दिया और फिर मैं आगे मुह करके बैठ गया।
वैसे मेरे मन मे बहुत ही पैरानॉर्मल साइंस की बातों ने उमाड बांध दिया था। मेरे अकेला मन कभी किसी बातो कुछ बहाना करके दबा देता कभी कुछ ।
लेकिन जब मैं इंजिनीरिंग की पढ़ाई राजधानी के एक सुप्रिसिद्ध कॉलेज में पड़ रहा था तब एक पैरानॉर्मल प्रोग्राम में यूनिवर्सिटी ऑफ वरजीनिया के प्रो० एमल्ली विल्लिअम्स आये हुए थे जो पैरानॉर्मल साइंस के प्रवक्ता थे जो पेरानॉर्मल साइंस और भूत प्रेत के बारे में बता रहे थे ।
परन्तु उस समय हम अपने दोस्तों के साथ उस सभागार में पीछे बैठे हुए मस्ती कर रहे थे ।
अब बैलगाड़ी गति में थोड़ा परिवर्तन होता दिख रहा था जो कुछ समय पहले रेंगते हुए चल रही अब उसकी गति में ज्यो ज्यो आगे जाती थी और तेज हो रही थी। मेरे लिए एक तरफ खुशी की बात थी कि मैं जल्दी हाइवे पर पहुच जाऊँगा और दूसरी तरफ मेरे मन ये हो रही जिज्ञासा इन सब बिस्मयस्पद घटनाओ के बारे मे उल्टा सीधा सोचने पर मजबूर कर रही थी ।
बैलगाड़ी की गति में परिवर्तन ज्यो ज्यो हो रहा था मेरी दिल की धड़कने त्यों त्यों बढ़ रही थी। रास्ते पर बैलगाड़ी से आने बाली अबाजे और तेज हो रही थी । सहसा बैलगाड़ी ने मानो मोटरगाड़ी की गति पकड़ ली हो।
परंतु आश्चर्य की बात ये थी कि बैलगाड़ी में बैठें लोग बिल्कुल भी हिलडुल नही रहे थे और मुझे हर पल ऐसा लग रहा था कि मैं गिर पड़ूँगा, मैं हर पल बहुत ही मजबूती से अपनी पकड़ बनाता जा रहा था।
बैलगाड़ी कुछ 1 या 1.5 किलोमीटर चली ही होगी कि वह हाइवे वाले रास्ते से नीचे खेतो में मुड़ने लगी।
उस समय मानो गेंहू की फसल अपने खेतों रूपी आँगन में नागिन की भाँति सुनहरा नृत्य कर रही हो , हवाओं का चलना उसमे संगीत की मनोकाष्ठा को पूरा कर रही हो। और साथ ही साथ एक नवउन्नयन वातावरण को प्रज्वलित कर रही थी जिसमे मेरे मन को रोमांच कम डरावना ज्यादा लग रहा था।
मैं अपनी इस समझ से परे था क्योंकि ये सब पहले मेरे साथ कभी नही हुआ था।
अचानक मैं उस बुजुर्ग से पूछ बैठा - "दादा ! आप किस तरफ जा रहे हो ।"
फिर वैसा ही हुआ जो पहले हुआ था उनमें से किसी ने कोई प्रतिक्रिया नही दी।
मेरी आवाज़ में और तेजी आयी मैंने अपने गले के उस आंतरिक स्वर को ऊपर खींच कर बोला - "दादा ! आप किस तरफ जा रहे हो ।" मेरे इतनी तेज स्वर से सब मेरी तरफ एक अचुब्द कर देने बाली नजर से देखने लगे। मैंने उस भयंकर माहौल के भाँपते हुए , तुरन्त ही अपने गले से नरमी भरे स्वर से कहा - " आपलोग हाइवे की तरफ नही जा रहे हो क्या ?" इस नरमी भरे स्वर से मुझे वैसी ही प्रतिक्रिया मिली जैसी नवजात के रोने पर माँ की प्रतिक्रिया होती है।
बैलगाड़ी खेतो में चलने लगी तभी पीछे से एक बहुत सहसा मंद स्वर में आवाज़ आयी -- "ये हाइवे का दूसरा रास्ता है ।"
मैंने इस रास्ते को अनगिनत बार पार किया था पर मुझे कभी इस हाइवे तक जाने बाले दूसरे रास्ते के बारे नही पता था।
मैंने अपने मन को एक झूंठी तसल्ली दी और इसको छोटा रास्ता बता कर उठने बाली तमाम जिज्ञासाओं को दबा दिया।
खेतों में चल रही बैलगाड़ी , उसके पहियों से दबते हुए गेंहू के पौधों से चु चूं चिस चास की आबजें पूरे वातावरण में अपनी अलग ही चहकालिया बिखेर रही थीं।
कुछ दूर चलने पर नदी दिखाई दी जो अपनी बिल्कुल शांत लहरों से बह रही थी।
नदी का शांत बहना बहुत ही मनमोहक था । हमें हाइवे के करीब पहुचने के इशारे मिलने लगे । बह रही नदी का पुल हाइवे पर बना था और उस पर लगी लाइट्स नदी में स्वनहरे प्रतिबिंब बना रही थी ।
हमको हाइवे के तरफ जाना था जो नदी के बगल से जाना था परन्तु बैलगाड़ी नदी की योर तेज़ी से बढ़ने लगी , मैं सकपका गया और मैने बड़ी तेजी स्वर में बोला -" आप लोग नदी की तरफ क्यों जा रहे हो।" किसी ने मेरी बातों की कोई प्रतिक्रिया नही दी । ये मेरे लिये अब कोई नया नही था क्योंकि कुछ समय पहले ये सब मेरे साथ हो चुका था ।
मैंने फिर तेजी से बोला -" बैलगाड़ी को रोको मुझे, मुझे उतरना है।"
किसी ने फिर कोई प्रतिक्रिया नही दी।
बैलगाड़ी की गति बहुत तेज थी जैसे कि कोई मोटरगाड़ी दौड रही हो ।
मैंने बैलगाड़ी से कूदने का सोचा लेकिन गति देख कर हिम्मत न हुई । अब मन ही मन बैलगाड़ी से उतरने की सोच रहा था और अपने ही आप को कोस रहा था कि मैं बैलगाड़ी पर बैठा ही क्यों? अगर बैठ गया था तो आगे बैठने की क्या जरूरत थी? ...... और तरह तरह के प्रश्न मेरे मन को कोस रहे थे।
अब मेरे पास बैलगाड़ी से कूदने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नही था।
फिर पता नही कहा से इतनी हिम्मत आयी कि मैंने आगे बैठा व्यक्ति जो सफेद कुर्ता और उस पर मैला अंगौछा डाले हुए उस बिचारे अकेले बैल को दौड़ा रहा था उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला - "दादा ! बैलगाड़ी रोक दीजिये "
दादा ने बड़ी नरमी से उत्तर दिया - " जल्दी चलो आग देनी है ।"
ये सब क्या था कुछ भी समझना मेरे बस में नही था , मैंने जो पूछा था उसका कुछ और ही उत्तर दिया । ये उत्तर मेरे मन में उठ रही तमाम जिज्ञासाओं को और तेज़ कर दिया ।
दादा किस आग की बात कर रहे है ? ... कहाँ आग देनी है ? .... किसको आग देनी है ? पता नही न जाने कहा से इतने सारे प्रश्न आ गए जिनके मेरे पास किसी का उत्तर भी नही था और मैं इन सब प्रश्नों के उत्तर देने के बस में भी नही था।
मैंने पुनः हिम्मत की और फिर हाथ रख कर पूछा - "दादा ! किसको आग देनी है ? "
मैं सोच रहा था सायद इस प्रश्न का उत्तर न मिले लेकिन ये क्या था ... पीछे बैठे सभी लोग मेरी तरफ घूर कर देखते हुए बोले - " अरे बेटा ! तुमको पता नही ठाकुर साहब को ।"
सायद ये अधूरा जबाब मुझे आने बाली भयानक घटनाओ का अंदेशा दे रही थी ।
मेरे इलाके में ऐसा कोई नही था जो ठाकुर साहब को न जानता हो, उनके बारे में बच्चा बच्चा के मुह पर उनकी कहानी थी।
और उनके स्वभाव से पूरा इलाका परिचित था।
ठाकुर साहब बहूत ही नेक दिल इंसान थे। कुछ ही बरसों पहले वो आर्मी से रिटायर्ड हुए थे, उनके परिवार में कोई नही था। बो गांव के विकास के बारे में हमेशा सजग रहते थे ।
परन्तु मेरे घर वालो से उनकी तनिक न बनाती थी बो हमेशा हमारे दादा जी की आलोचना करते रहते थे, की गांव के प्रधान होकर गांव के बारे में कुछ नही सोचते और भी बहुत कुछ ।
यही वजह थी कि दादा जी और उनकी बहुत खटकती रहती थी । परन्तु मेरा उनके प्रति और उनका मेरे प्रति अलग ही स्वभाव था , हम दोनों लोगो मे बहुत जमती थी और एक अलग प्रकार की दोस्ती थी । मैं जब छुट्टियों में घर आता था तो रोज उनके घर पर पूरा पूरा दिन सतरंज खेला करता था । मेरा ठाकुर साहब के घर जाना मेरे घर बालो को अच्छा नही लगता था , और डांट भी बहुत पड़ती थी ।
वो मुझे बहुत मानते थे औऱ विश्वास भी बहुत करते थे। हमलोगों की दोस्ती पूरे गांव में मशहूर थी।
उनको मेरी छुट्टियों से लेकर महीने में मैं कब घर आ रहा हु सब उनको पता रहता था।
ठाकुर साहब को आग देना है ये बात मेरी समझ से बाहर थी क्योंकि इतना तो मैं भली भांति जनता था कि किसी को आग मरने के बाद ही दी जाती है।
बस इसी बात ने मुझे इतना डरा दिया था कि मेरे हाथ पैर फूलने लगे , क्योंकि कल तो सुबह सुबह मैं उनसे मिला था और अब ये सब।
नही नही ....
मैं मन ही मन प्राथना करने लगा कि ये सपना हो जाये, मैं कुछ सोच पता तबतक बैलगाड़ी रुक गयी और सब एक एक कर के उतरने लगे ।
मैं बैलगाड़ी पर ही बैठा रहा मेरी नीचे उतरने की हिम्मत न हो रही थी ।
मैंने देखा दूसरी तरफ नदी के पुल की ओर जहां अब उस पर लगी लाइट्स बंद हो गयी थी , पूरा इलाका घोर अंधेरे में ढका हुआ था और हवाये सायँ सायँ कर रही थी । ये जगह किसी भूतिया जगह से कम नही लग रही थी।
उनमे से एक असाध्य बुजुर्ग ने अपनी लाठी टेक कर मुझे आवाज दी - " बेटा! नीचे आओ।"
मुझे आवाज स्पष्ट सुनाई दी लेकिन इस बार मैंने कोई प्रतिक्रिया नही दी औऱ सर नीचे झुकाये बैठा रहा।
फिर वो बुजुर्ग लाठी टेकते हुए बैलगाड़ी के पहिये के पास आकर बोला - "बेटा ! नीचे आओ और आग दो चल कर।"
मेरे लिये आज सबकुछ जो हो रहा था नया और भयाभय था।
मेंरे मुह से आवाज ही नही निकल रही थी , मेरी गले मे घेघी बंधी हुयी थी।
मैंने बहुत ही धीमी आवाज में बोला - " कहा चलना है। दादा!"
अब वो बुजुर्ग उस बिचारे बैल, जो इन लोगो को अकेले ढो कर लाया था उसके पास आकर बोले- " बेटा ! चलो तो सही ।"
मै बड़ी साबधानी के साथ नीचे उतरा और अपने पिठु को दोनों हाथों से अपने सीने में लागए धीरे धीरे उस बुजुर्ग के पीछे चलने लगा । थोड़ी ही दूर चले होंगे कि बैलगाड़ी पर बैठे सभी बुजुर्ग किसी स्थान को घेरे खड़े हुए थे ।
सायद हम दोनों के पैरों की आहट उन लोगो ने सुन ली थी , और सब हटने लगे । मुझे सामने एक चिता दिखाई दी और उसपर कोई 60 या 70 साल का बुजुर्ग लेता हुआ था ।
मुझे उस बुजुर्ग को पहचानने में तनिक भी देर न हुई वो ठाकुर साहब ही थे।
मेरे हाथों से मेरा पिठु छूट गया । मेरे चेहरे पर झुर्रियां साफ झलक रही थी मेरी आँखों से अस्वधारा निरंतर बह रही थी जिन पर मेरा कोई बस नही था।
ये कैसे हो सकता है ? .... नही ..नही ये कोई सपना है ! नही! ये ठाकुर साहब नही हो सकते।.....…
ऐसे तमाम प्रश्न मन मे उमाड बाँधने लगे।
तभी किसी ने मेरे कन्धे हाथ रखा और मुझे जलती हुई मशाल हाथ मे थमाते हुए बोला - " बेटा! ठाकुर साहब को आग दे दो। "
उस समय पता नही मेरे मन मे कोई न ही प्रश्न उठा और न ही कोई जिज्ञासा।
मैंने उस मसाल से सामने रखी हुई चिता की लकड़ियों में छुआते ही उस चिता पर वो मसाल फेंक दी , और पीछे घूम गया ।
तभी उसी बुजुर्ग ने जो मुझे बैलगाड़ी के पास बुलाने गया था मुझे एक मटीला थैला पकड़ाया ।
उस थैले में मुझे कुछ सिक्के जैसे मालूम पड़े।
मैंने अपने पिठु को उठाया और कुछ दूर जाकर बैठ गया ।
और ठाकुर साहब को सोच कर रोने लगा।
तभी एक बुजुर्ग मेरे पास आकर बोला - " बेटा ! नहा लो ।"
चिता पूरी जल चुकी थी।
मैंने अपने कपड़े निकले और नहाने के लिए नदी में घुसा और नहाकर अपने कपड़े पहने और पुल की तरफ अपना पिठु उठा कर बिना पीछे देखे दौड़ा , पुल पर अब लाइट्स जल रही थी , गाड़ियां भी गुजर रही थी और सुबह भी होने बाली थी।
तभी मुझे एक टैम्पू गांव का दिखा उसको हाथ दिया उसने रोका और मैं उस पर बैठ कर पीछे देखा जहाँ अभी मैं चिता को जला कर आया था।
मेरे लिये ये कोई सदमे से कम नही था । उहां कुछ नही था।
और न वो लोग दिख रहे थे और न ही कोई बैलगाड़ी दिख रहा था सिर्फ उस चिता का अवशेष।
" इतनी सुबह कहा से आ रहे हो । साहब !"
इतना सुनते ही मैं चौक उठा और टेम्पू चालक की तरफ घूर कर देखने लगा।
उसने फिर बड़ी नरमी से पूछा -" साहब! आज इतनी सुबह कहा से आ रहे हो।"
मैंने अपने आप को संभाला और उसको बोला - " कही नही बस लखनऊ से।"
फिर हम उसी रास्ते से हिचकोले लेते हुए घर पहुचे ।
मम्मी जाग चुकी थी मैं चुपके से ऊपर गया और अपने कमरे में घुस कर सो गया।
दोपहर में जब उठा तो दादा जी ठाकुर साहब की बाते कर रहे थे ।
मैंने पूछा - " क्या हुआ ठाकुर साहब को? "
दादा ने बताया कि कल रात को हाइवे पर बने पुल पर ठाकुर साहब का गाड़ी के साथ दुर्घटना हो गयी और गाड़ी मिल गयी लेकिन लाश नही मिली।
मुझे अब सब समझ मे आ चुका था।
परन्तु मुझे आजतक ये समझ मे नही आया कि वो लोग कौन थे? और मुझे कैसे जानते थे? और मुझे क्यों मिले ?
ये आज तक रहस्य था।
आज मैंने ये अपनी आपबीती आजतक किसी को नही बताई पर आज shabd.in पर साझा कर रहा हु।
आपलोगो ने मेरे सभी भाग पर इतना प्यार दिया जिसके लिये आपका और Shabd.in एप्पलीकेशन का आभारी हूँ।
धन्यवाद।
ईo शशांक त्रिपाठी
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नोट- आपलोगो को मेरा दिल से प्रणाम ।
मुझे बिल्कुल भी आशा नही थी कि मेरी पहली रचना को इतना प्यार दोगे।
अगले season के लिये अपनी टिप्पणी दे।