*हृदय परिवर्तन*
*30 दिसंबर की रात मोहन अपनी पत्नी अर्पणा संग एक दोस्त के यहां हुई नये साल की पार्टी से लौट रहा था बाहर बड़ी ठंड थी।*
*दोनों पति पत्नी कार से वापस घर की और जा रहे थे तभी सड़क किनारे पेड़ के नीचे पतली पुरानी फटी चिथड़ी चादर में लिपटे एक बूढ़े भिखारी को देख मोहन का दिल द्रवित हो गया.*
*उसने गाडी़ रोकी । पत्नी अर्पणा ने मोहन को हैरानी से देखते हुए कहा क्या हुआ ।*
*गाडी़ क्यों रोकी आपने ।*
*वह बूढ़ा ठंड से कांप रहा है। अर्पणा इसलिए गाडी़ रोकी .*
*तो -?*
*मोहन बोला अरे यार ..*
*गाडी़ में जो कंबल पड़ा है ना उसे दे देते हैं..*
*क्या - वो कंबल -*
*मोहनजी इतना मंहगा कंबल आप इस को देंगे।*
*अरे वह उसे ओढेगा नहीं बल्की उसे बेच देगा ये ऐसे ही होते है.*
*मोहन मुस्कुरा कर गाडी से उतरा और कंबल डिग्गी से निकालकर उस बुजुर्ग को दे दिया ।*
*अर्पणा ने गुस्से में मुंह बना लिया।*
*अगले दिन नववर्ष के पहले दिन यानि 31 दिसंबर को भी बड़े गजब की ठंड थी...*
*आज भी मोहन और अर्पणा एक फंग्शन से लौट रहे थे तो अर्पणा ने कहा..*
*चलिए मोहन जी एकबार देखे. उस रात वाले बूढ़े का क्या हाल है..*
*मोहन ने वहीं गाडी़ रोकी और जब देखा तो बूढ़ा भिखारी वही था मगर उसके पास वह कंबल नहीं था..*
*वह अपनी वही पुरानी चादर ओढ़े लेटा था.*
*अर्पणा ने आँखे बडी करते हुए कहा देखा..*
*मैंने कहा था की वो कंबल उसे मत दो इसने जरूर बेच दिया होगा ।*
*दोनों कार से उतर कर उस बूढे के पास गये.*
*अर्पणा ने व्यंग्य करते हुए पूछा क्यों बाबा*
*रात वाला कंबल कहां है ? बेच कर नशे का सामान ले आये क्या...?*
*बुजुर्ग ने हाथ से इशारा किया जहां थोड़ी दूरी पर एक बूढ़ी औरत लेटी हुई थी.*
*जिसने वही कंबल ओढा हुआ था...*
*बुजुर्ग बोला. बेटा वह औरत पैरों से विकलांग है और उसके कपडे भी कहीं कहीं से फटे हुए है लोग भीख देते वक्त भी गंदी नजरों से देखते है ऊपर से ये ठंड ..*
*मेरे पास कम से कम ये पुरानी चादर तो है, उसके पास कुछ नहीं था तो मैंने कंबल उसे दें दिया..*
*अर्पणा हतप्रभ सी रह गयी..*
*अब उसकी आँखो में पश्चाताप के आँसु थे वो धीरे से आकर मोहन से बोली..*
*चलिए...घर से एक कंबल और लाकर बाबा जी को दे भी देते हैं..*
*दोस्तों ..... ईश्वर का धन्यवाद कीजिए कि ईश्वर ने आपको देनेवालों की श्रेणी में रखा है अतः जितना हो सके जरूरतमंदों की मदद करें*
*चिड़ी चोंच भर ले गई।*
*नदी न् घटिये नीर।।*
*दान दिए धन ना घटे।*
*कह गए दास कबीर।।*