इंद्रधनुष
चिड़िया ने जब वर्षा के बाद सर उठाया,
सामने चमचमाता हुआ इंद्रधनुषी दृष्य पाया ।
घोंसले से देखा उसने दूर वादियों में,
विशाल रंगबिरंगी काया दो पर्वतों के बीच में ।
उस तक पहुंचने की चाह में बेसुध उड़ चला
इच्छा तीव्र हो तो भूख-प्यास क्या भला ?
रास्ते में सर्द हवा, चील, बाज सबसे लड़ लिया,
लहू-लुहान , थका, कांपता लक्ष्य पर अमल किया ।
पहुंचा जब अधमरा - सा वह पर्वत पर,
सर घुमा-घुमा कर खोजा उसने पूरा शिखर ।
पर यह क्या ? इंद्रधनुष तो वहां था ही नहीं,
असमंजस में सोचा उसने, देखा मैंने उसे यहीं ।
दम भर कर उसने फिर से दूर उड़ान भरी,
पलटा तो देखा वहीं थी सप्तरंगों की लड़ी ।
खुशी से फिर उसके बीच में जाना चाहा,
उसके शीतल रंगों में अपनी विजय को रंगना चाहा ।
पर पास पहुंचते ही वो लुप्त हो गया,
तब जाना उसने कि आंखों का धोखा हो गया ।
जिसे पाने के लिये प्राण देने को तत्पर था,
उस छ्लावे का अस्तित्व क्षणिक, नश्वर था ।
वो बना था उसके जैसे साहसिक मूर्खों के लिये,
स्वप्न ही उड़ जाते हैं, जिनकी बुद्धि को लिये ।
गिर पड़ा, फिर हंसने लगा, पागलों के जैसे
इंद्रधनुष के झूठ को कोस रहा हो जैसे ।
बहुत देर तक उसने इंद्रधनुष को घृणा से घूरा,
फिर धीरे-धीरे उसे चित्र समझ आया पूरा ।
कि है ये झूठ, किंतु सत्य इसको मैने माना,
अपने लालच की भूल को तब उसने जाना ।
है मेरी ही भूल, जानकर जब फिर पंख फैलाये,
मुसकुराकर चाहा कि इंद्रधनुष मुझे फिर न ललचाये ॥
----*---- - आद्या "कात्यायनी"