आसमान पर दो आत्माओं के बीच बातचीत
पहली आत्मा- तुम्हारा शरीर कैसे मरा ?
दूसरी आत्मा -भूकम्प आया था ,घर से बाहर नहीं निकल पाया और घर के मलवे में ही दब कर मर गया
तुम बताओ तुम्हारा शरीर कैसे मरा ?
पहली आत्मा- भूकम्प में जिस पड़ौसी ने मेरी जान बचायी थी साम्प्रदायिक दंगे में उसी ने मेरी जान ले ली । 😔
भले ही यह कहानी वास्तविकता से दूर परन्तु इसके पीछे भावनाओ का आवेग,प्रभाव दिखाई देता है ।
भावनाओं ,अहसास से ही हमारी सोच विकसित होती है और वही हमारी मानसिकता फिर कर्म ,रास्ते बनते चले जाते हैं ।
जातिवाद , राजनीतिक विचारधारा हमारे जीवन को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं यहाँ तक कि अपनी विचारधारा के विपरीत किसी भी सत्य को हम अस्वीकार कर देते हैं ,इसका उल्टा भी उतना ही बड़ा सच है कि अपनी विचारधारा के अनुकूल किसी भी ग़लत कृत्य को हम आसानी से स्वीकार कर लेते हैं ,गले लगा लेते हैं ।
अपनी विचारधारा के अनुकूल हज़ारों मील दूर किसी ज़ुल्म या मानव पर अन्याय के विरुद्ध हुए कृत्य पर हमारा मन दुःखी हो जाता है तो विचारधारा के प्रतिकूल होने पर मन प्रसन्न भी हो जाता है ।
कहीं जातिगत द्वेष है तो कहीं रंगभेद ,आर्थिक असमानता का संघर्ष और नफ़रत ।
आख़िर ऐसा क्यों कि मासूम ,बेगुनाहों पर अत्याचार पर कुछ दुःखी होते हैं तो कुछ प्रसन्नता नहीं छिपा पाते हैं ।
जातिवाद हमें पैदा होते ही घुट्टी में पिला दिया जाता है ।
9 महीने माँ के गर्भ में सभी एक समान होते हैं परन्तु बाहर दुनिया में आते ही वे हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई बन जाते हैं । राम ,रहीम ,जमीला ,शांति , रॉबर्ट्स में रूपांतरित हो जाते हैं और वही सोच उनके कर्म और नियति बन जाती है ।
उसी अनुसार उसके मन में प्रेम ,अपनापन,स्नेह या घृणा ,ईर्ष्या ,क्रोध ,नफ़रत की भावना विकसित हो जाती है ।
पारिवारिक पृष्ठभूमि या लालन पालन जितना मज़बूत होगा भावनाएँ भी उतनी ही मज़बूती से जड़ें जमा लेती हैं ।
संसार में जहाँ कहीं भी मानवता पर ज़ुल्म होता है , हमारे मानसपटल पर उसका प्रभाव असर छोड़ता चला जाता है ,और किसी व्यक्ति पर ज़ुल्म होता है तो मस्तिष्क भावनाओं के अनुसार प्रतिक्रिया देना प्रारम्भ कर देता है और यह प्रतिक्रिया कई वर्षों,आजीवन या पीढ़ियों तक कर्मों में दिखाई देती है और सबसे दुःखद होता है
-- बदले की भावना ।
जब स्वजातीय पर हमला होता है तो मन आक्रोशित होता जाता है और दूसरे के प्रति घृणा इतनी बढ़ती चली जाती है कि उस पर अत्याचार हमें इंसाफ़ दिखाई देने लगता है ।
जितनीं हमारी भावनाएँ मज़बूत होंगी हम मानवता पर हुए हमले पर उतनी ही मज़बूत प्रतिक्रिया देते चले जाते हैं ।
यह भी भूल जाते हैं कि ज़ुल्म किस मासूम या बेगुनाह ,निर्दोष पर हुआ है या उसका क्या क़ुसूर है ।
धर्म मज़हब जहाँ एक ओर मानवता को सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं वहीं धार्मिक मज़हबी कट्टरता मानवता की सबसे बड़ी दुश्मन होती है ।
और यही हमारी मानसिक दुर्बलता मानवता पर अत्याचार को सही ठहराती चली जाती है ।
किसी के प्रति आकर्षण हमें प्रेम की दहलीज़ तक पहुंचाता है जिसकी अति मोह का दूसरा रूप बन जाता है ।यदि परिस्थितियां विपरीत हो जायें तो यही प्रेम नफ़रत में रूपांतरित हो जाता है ।अक्सर किसी बेगुनाह के मुँह पर तेज़ाब डालने वाला वही होता है जो उससे प्रेम कर रहा होता है ।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई यहूदी किसी भी बेगुनाह मासूम पर अत्याचार ,हत्या से यदि किसी को प्रसन्नता , संतोष प्राप्त हो रहा है तो यह तय है कि उसकी दुर्बल भावनाएँ मानवता को रौंद चुकी हैं वह अब वहशी जानवर से अधिक घातक बन चुका है क्योंकि वहशी जानवर भी किसी मासूम जानवर का शिकार तब तक नहीं करता जब तक कि वह भूखा नहीं होता ।
मासूम का शिकार करना उसकी मजबूरी है क्योंकि अपना पेट भरने के लिये प्रकृति ने उसे जीव हत्या के लिये विवश किया है ।
काश संसार के हुक्मरान अपने अहँकार ,लाभ ,लालच से ऊपर उठ कर मानवता को प्राथमिकता दें तो संसार से अन्याय ,भूख ,अशिक्षा , असमानता सब समाप्त हो जाये और यह संसार सभी के लिये रहने की बेहतरीन जगह साबित हो जाये परन्तु क्या यह सम्भव है ?
© ईकराम 'साहिल'