डायरी दिनांक १९/११/२०२२
सुबह के सात बजकर पांच मिनट हो रहे हैं ।
कल मैंने बताया था कि रूपा का विवाह होने के उपरांत घर में साफ सफाई और खाना आदि घरेलू काम करने की जिम्मेदारी उसके पिता को उठानी पड़ी जबकि उसकी माँ आलस्य से पड़ी रहती। वैसे पति पत्नी में किसे घर का काम करना चाहिये और किसे बाहर का, इस विषय में ईश्वर द्वारा कुछ भी निर्धारित नहीं है। पर हमारे पुरुष प्रधान समाज में वह व्यक्ति उपहास का ही पात्र बनता है जो कि स्त्री के रहते घर के काम करे। पर सच्ची बात है कि पेट की क्षुधा बड़े से बड़े उपहास और अपमान को भी सहन करने की शक्ति देती है।
विवाह के बाद रूपा विदा होकर आयी और पति के साथ ही शाम तक वापस चली गयी। हालांकि रूपा को रुकने के लिये और कुछ दिन बाद ससुराल भेजने के लिये बोला गया। पर रूपा ने मायके में रुकने में उत्सुकता न दिखाई। यह रूपा की पति भक्ति थी या मायके के प्रति वितृष्णा, कहा नहीं जा सकता। हालांकि एक सत्य यह भी था कि ससुराल में भी उसे उसके पति को छोड़ कोई स्नेह नहीं करता था। ससुरालीजनों के व्यंग्य वाण अक्सर उसके मन को चुभते थे। पर शायद उन सभी निरादर को मिलाने से हुई पीड़ा भी मायके के अभावों के सापेक्ष बहुत कम थी। ससुराल में पति स्नेह का मलहम भी था। साथ ही साथ रूपा का खुद के प्रति आत्मविश्वास कि वह जल्दी ही ससुराल में सभी को प्रसन्न कर लेगी।
ज्ञात हुआ कि ससुराल के समीकरण जल्द ही बदल गये। रूपा से किसी को प्रेम हुआ या नहीं पर अब वह परिवार में अप्रिय नहीं रही। दुधारू गाय और कमेरी बहू पसंद आ ही जाती है।
सावन का महीना आ गया। सिरसागंज साइड में विवाहिता लड़की विवाह के बाद पहला सावन मायके में बिताती है। पढे लिखे समाज में परंपराओं की लकीर पिटती है जबकि निर्धन वर्ग में परंपराओं का पालन अति आवश्यक होता है। इस बार रूपा मायके रुकने के हिसाब से आयी। कुछ ही महीनों में वह अधिक सुंदर हो गयी थी और अधिक चतुर भी। उसकी बातें अपेक्षाकृत अधिक समझदारी भरी होतीं। रूपा पड़ोसियों के लिये एक बार फिर कौतूहल का विषय बनी। कारण कि रूपा अपने पति प्रेम का खुलकर बखान करती थी। इस तरह अपने प्रेम का प्रदर्शन सचमुच कौतूहल का कारण था। पति द्वारा उपहार में दिये साबुन, क्रीम, पाउडर तथा दूसरे श्रंगार के सामानों को सभी को दिखाती थी।
कुछ दिन ठेकेदार साहब को गृहकार्यों से मुक्ति मिली। पर ऐसा बहुत अधिक दिनों तक नहीं हुआ। रूपा को बुखार आया। कुछ दवाएं दी गयीं। पर बुखार नहीं उतरा। शरीर पर वारीक से दाने उभरने लगे। मोतीक्षरा (टायफाइड का बड़ा रूप) की पुष्टि हुई। संक्रामक बीमारी के उपचार के तौर पर रूपा की चारपाई घर से अलग खाली जगह में छप्पर के नीचे डाल दी गयी। पांच छह दिनों तक रूपा वहीं पड़ी रही। डाक्टर से उपचार कराने की आवश्यकता अनुभव न की। साथ ही साथ रूपा के आदमी या ससुराल में बताना भी आवश्यक न लगा।
इसे हम दोष कहें तो शायद गलत होगा। मनुष्य वही आचरण करता है जैसा कि वह खुद के साथ होता देखता रहा है। बीमारी से रक्षा मात्र ईश्वर का विधान है, जहाँ कितने छोटे बच्चों को बीमारी में शरीर त्यागते देखा गया हो, वहाँ किसी वयस्क का बीमार होना कोई बड़ी बात न थी। रूखा, सूखा और भूखा बड़ी से बड़ी बीमारी का उनका स्वरचित इलाज कई बार कामयाब भी होता है।
रूपा ने पति की चिट्ठी का जबाव न दिया। पति परेशान होकर रूपा से मिलने आ गया। देखा कि रूपा तो महाप्रयाण की तैयारी कर रही है। सबसे पहले रूपा के भावी वियोग में जिसके रुदन की ध्वनि सुनाई दी, वह उसके पति की ही थी। आनन फानन में वह रूपा को स्थानीय डाक्टर के पास लेकर गया। जहाँ मात्र कुछ घंटों के इलाज के बाद जब रूपा वापस आयी तब रूपा के रूप में उसका निर्जीव शरीर था। रूपा विदा हो चुकी थी।
रुदन की ध्वनि बढती गयी। बड़ा जनसैलाब रूपा के निधन की सूचना पर एकत्रित हो गया। रूपा को मुखाग्नि देकर उसका पति वापस चला गया।
कुछ दिनों बाद रूपा की माॅ जिसे सब ठेकेदारिन कहते थे, रूपा की श्रंगार पेटी से क्रीम, पाउडर निकाल अपना श्रंगार कर रही थी। यह उनकी निर्मोहता थी, निर्ममता थी, अथवा उनकी आवश्यकता, इस प्रश्न का उत्तर कठिनाई से ही दिया जा सकता है।
अभी के लिये इतना ही। कल और दूसरे संस्मरणों का उल्लेख करूंगा। आप सभी को राम राम।