डायरी दिनांक २३/११/२०२२
शाम के छह बजकर तीस मिनट हो रहे हैं ।
आज दिन भर व्यस्तता रही तथा कल के निर्धारित के अनुसार भी कल भी व्यस्तता रहेगी।
पुरानी कथाओं में ऐसी पतिव्रता स्त्रियों के चरित्र दिये गये हैं जिन्होंने अपने पति के निधन के बाद अपने प्राण ही त्याग दिये। भगवान शिव की अर्धांगिनी माता सती ने अपने पिता के यज्ञ में अपने पति का अपमान देखते हुए उस यज्ञ अग्नि में अपने प्राण अर्पित किये थे। शायद इसी कारण पति प्रेम में अपने प्राण त्यागने बाली स्त्रियों को सती कहा जाने लगा।
प्राचीन काल में सारी स्त्रियां सती नहीं होती थीं। किसी स्त्री के सती होने के लिये भी कुछ नियम बताये गये हैं। यदि उसके गर्भ में बालक है अथवा वह किसी अबोध बालक की माता है तो ऐसी स्त्री को सती होने का अधिकार नहीं है।
महर्षि दधीचि ने संसार के कल्याण के लिये अपने प्राण त्याग दिये। उनकी पत्नी स्वार्चा उस समय आश्रम में नहीं थीं। जब उन्हें अपने पति के निधन का ज्ञान हुआ, उस समय उन्होंने सती होने का निश्चय किया। पर क्योंकि वह गर्भवती थीं, इस कारण सती होने के योग्य नहीं थीं। कथा के अनुसार उन्होंने किसी विशेष युक्ति ने अपने गर्भस्थ शिशु को जन्म देकर उस शिशु की रक्षा एवं पौषण का भार पीपल के वृक्ष को दिया। फिर वह सती हो गयीं।
महाराज पांडु की पत्नी माद्री ने अपने दोनों बच्चों नकुल और सहदेव के पालन पौषण का भार देवी कुंती को दिया। फिर वह सती हुईं थीं।
स्मृतियों के झरोखे में मुझे ऐसी घटना याद आ रही है जबकि कहा जा सकता है कि सती कथाएं कोई कपोल कल्पना नहीं थीं।
सिरसागंज के नजदीक एक व्यक्ति को विषधर सर्प ने काट लिया। सर्पदंश से उस व्यक्ति की मृत्यु हो गयी। पर उस समाज में व्याप्त विश्वास के आधार पर परिजन मंत्रों द्वारा सर्पदंश से प्राण बचाने बाले को लेकर आये। (मुंशी प्रेमचंद्र जी की कहानी मंत्र में भी ऐसे ही व्यक्ति का चित्रण किया गया है जो कि मंत्रों की शक्ति से सर्पदंश से मृत्यु की अवस्था को प्राप्त व्यक्ति का इलाज करता था।) उस व्यक्ति ने घंटों मंत्रों का उच्चारण किया।
मृतक की पत्नी ने उससे पूछा कि अब ये वापस आयेंगे या नहीं। उसके मना करते ही मृतक की पत्नी ने अपने प्राण त्याग दिये। पति से इतना अधिक प्रेम करने बाली उस सती स्त्री की गाथा बहुत दिनों तक चर्चा का विषय बनती रही।
आज के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम ।