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डायरी दिनांक २७/११/२०२२

27 नवम्बर 2022

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डायरी दिनांक २७/११/२०२२

  शाम के तीन बजकर पचपन मिनट हो रहे हैं ।

  आज अल्ट्रासाउंड कराया तो पाया कि किडनी में फिर से पथरी बन रही है। शायद यह एक बड़ी प्रक्रिया है। अथवा एक बार पथरी बनने लगे तो बार बार बनती है। वैसे अभी दर्द जैसी समस्या नहीं है। दर्द न रहे। यही प्रमुख बात है। शेष डाक्टर साहब राय देंगें।

  स्मृतियों के भंवर में ऐसी ऐसी कहानियां निकल रही हैं जो कि यथार्थ जीवन से संबंधित होने के बाद भी यथार्थ से परे सी लगती हैं। वास्तव में यही जीवन का यथार्थ है जिसे हर कोई संसार से छिपाना चाहता है। अधिकांश छिपा लेने में समर्थ भी रहते हैं। पर कुछ की स्थिति ऐसी हो जाती है कि उसमें गुप्त जैसा कुछ भी नहीं रहता।

  बाबूजी के विद्यालय में गणित विषय के प्रवक्ता श्री ओम प्रकाश वैश्य जी थे। वैश्य साहस दो शब्दों को मिलाकर अपभ्रंश नाम बेसाब बन गया। इसी अपभ्रंश नाम से उनकी पहचान थी। कितने ही लोग जानते ही न थे कि बेसाब उनके सर नेम का अपभ्रंश है।

  बेसाब ताऊ से बाबूजी का परिचय उस समय का था जबकि बाबूजी की नौकरी लगी थी। तथा मेरा परिचय उस समय का है जब से मेरी याददाश्त है।

ताऊजी के पास किसी भी चीज की कमी नहीं थी। गणित के प्रवक्ता को भरपूर वेतन मिलता था। और ट्यूशन पढने आने बाले बच्चों की भी कमी नहीं थी। उनका मकान बहुत बड़ा था। जरूरी कमरों को छोड़ अधिकांश कमरों में किरायेदार ही रहते थे।

  बेसाब ताऊ जी के बैठक दूसरे अध्यापकों के लिये एक चौपाल का काम करती थी। उनकी बैठक में कोई न कोई अवश्य मिलता था।


  शाम के समय बाबूजी और ताऊजी तथा कुछ अन्य अध्यापक साथ साथ सिरसागंज कस्बे के बाहर बालाजी मंदिर तक जाते थे। ताऊजी का पालतू कुत्ता टामी भी अक्सर साथ जाता था। मुझे टामी बहुत अच्छा लगता था। देशी नस्ल का बड़ा हृष्ट पुष्ट कुत्ता था। जो बड़ा ही वफादार था।


  ताऊजी मूल रूप से मुरादाबाद जनपद के रहने बाले थे। पर वह अपने घर बहुत कम ही जाते थे। गर्मी की छुट्टियों में भी ज्यादातर सिरसागंज में ही रहते थे। जब वह कहीं बाहर जाते थे, तब टामी हमारे घर आ जाता था। बाबूजी उसे रोटी देते थे। जिसे खाकर वह ताऊजी के घर पर चला जाता था। टामी वफादारी का दूसरा नाम था। घर के दरबाजे पर बैठकर पूरी रात रखबाली करता था ।


  शायद बचपन में मेरी बुद्धि बहुत अधिक संकुचित थी। अन्यथा आज के बच्चे जरा भी अलग देखते ही प्रश्न करने लगते हैं। उन दिनों बच्चों की समझने की शक्ति ही बहुत बाद में आती थी। यह अच्छी बात है या खराब, कहा नहीं जा सकता।


  मैंने पिछले मकान में दूसरे किरायेदार की बेटी जीविका के विषय में पहले कई बार लिखा है। एक बार जीविका ने मम्मी से प्रश्न किया - दादी। आप अंकल की शादी क्यों नहीं करा देंतीं। घर में अंटी आ जायेंगीं।


जीविका से अपेक्षाकृत अधिक आयु तक भी कभी मेरे दिमाग में नहीं आया कि बाकी सारे अंकलों के घर में अंटी जी हैं। सभी ताउओं के घर में ताई जी भी हैं।सभी घरों में बच्चे भी होते हैं।पर ताऊजी के घर में न तो ताई जी हैं और न हीं बच्चे। ऐसा प्रश्न तो मैं तब करता जबकि लगातार साथ रहने के बाद भी मुझे यह प्रश्न मेरे दिमाग में आता।


  बेसाब ताऊजी की जिंदगी की कहानी मुझे उस समय समझ में आयी जबकि ताऊजी के घर एक ताई जी रहने आयीं। फिर कुछ सालों में उनकी जिंदगी के कई रहस्य मेरे सामने आये।

अभी के लिये इतना ही। आप सभी को राम राम ।

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