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डायरी दिनांक १८/११/२०२२

18 नवम्बर 2022

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डायरी दिनांक १८/११/२०२२

  दोपहर के तीन बज रहे हैं।

  पुराने संस्मरणों के विवरण में मैंने कल अपने उन पड़ोसियों के विषय में बताया था जिनसे मेरा परिचय ठीक उस समय हुआ था जबकि बाबूजी मकान बनबा रहे थे। एक जैसों में कुछ अलग सा एकदम नजर में आता है। उन्हीं पड़ोसियों में एक शांति प्रिय परिवार भी था। शांति का अर्थ यह नहीं कि उस परिवार के सदस्यों में आपस में झगड़े नहीं होते थे। पर वे पारिवारिक झगड़े भी उनमें बहुत कम होते थे तथा दूसरों के लिये तो वे ऐसे विनम्र थे जैसे कि माता गंगा के प्रवाह की कथा के बांस के पौधे वे ही हों। जिस तरह झुकने के कारण बांस के पौधे देवी भागीरथी के लिये अवध्य थे, उसी तरह वह परिवार की समर्थ लोगों की सहानुभूति का पात्र सहसा ही था।

  परिवार के सदस्यों में पति पत्नी के अतिरिक्त तीन बेटे और एक बेटी थी। सबसे छोटा बेटा शायद दस साल से भी कम का था। बेटी भी सौलह सत्रह के फेर की होगी। जबकि दो बेटे बड़े थे। परिश्रम करने के योग्य थे। पर परिश्रम करने में लगभग पूरे परिवार को ही अरुचि सी थी। इसका एक कारण यह भी था कि वे लोग आरंभ से इतने अधिक निर्धन न थे। कभी नलकूप विभाग में वह ठेकेदारी का काम भी करते थे। कई बार बड़े ठेके का आंशिक भाग बड़े ठेकेदार की कृपा से प्राप्त कर अपनी गुजर बसर कर लेते थे। हाथों से उन्होंने अधिक काम किया ही नहीं था। तथा ठेकेदार साहब बाली बू मन से निकली न थी। परिस्थितियों के कारण भले ही सारी ठेकेदारी बंद हो गयी, घर की स्थिति भी निर्धनता की प्रचुरता में धराशायी होने लगी पर काम नहीं किया जा सकता था। जीवन निर्वाह के लिये हाथ जोड़कर खेलों के मालिकों से खरपतवार के रूप में उपजा बथुआ, बिक्री के लिये पूर्ण अयोग्य आलू आदि मिल जाते थे। उन्हें खाकर काम चल जाता था। कभी कभी बटाई पर खेत भी ले लेते। जिसमें उन्हें मात्र इतना ही लाभ होता कि घर पर खाना पीना हो जाता। पर मजदूरी न करने की उनकी प्रतिज्ञा अडिग थी। हालांकि बाद में इस प्रतिज्ञा के निर्वहन में विघ्न पड़ने लगा। बड़े बच्चों की खुराक के लिये आय तो होनी ही चाहिये। इसलिये सबसे बड़ा लड़का फिरोजाबाद में किसी चूड़ी की फैक्ट्री में काम करने लगा। मजदूरी जो अपने कस्बे में करना सहज न थी, वही मजदूरी दूसरे शहर में करना सहज थी।

  बाद में दूसरे नंबर का लड़का भी फिरोजाबाद चला गया। तथाकथित सुपरवाइजरी के कथानक से उस परिवार को कुछ आय होने लगी। एक छोटा सा फ्लोट पहले से उनके पास था। उसी फ्लोट को उन्होंने एक कमरे के मकान में तब्दील किया। ऐसा मकान जहां कमरे में कोई प्लास्टर न था। मकान की सीमा रेखांकित करने बाली दीबाल न थी। पर जो भी था, मकान तो था। वह भी उनका निजी।

  बेटी जिसका नाम रूपा था, रूपवती नहीं पर कुरूप भी न थी। वैसे भी रूप केवल ईश्वर प्रदत्त वस्तु नहीं है। निर्धन परिवार की कन्या जिसके पास स्नान के लिये साबुन जैसी वस्तुओं का भी अभाव था, किस प्रकार अपने रूप को संरक्षित रखती। वैसे रूपा का चेहरा आदि इस तरह का आकर्षक था कि माना जा सकता है कि यदि वह किसी सामान्य स्थिति के परिवार में भी जन्म लेती तो उससे बहुत अधिक सुंदर लगती जितना कि वह लगा करती थी।

  मैंने रूपा को कभी भी सूट आदि पहने नहीं देखा। वह साड़ी पहना करती थी। उसके इस वस्त्र चयन का क्या कारण था, कहा नहीं जा सकता।

  रूपा खुद को बहुत समझदार मानती थी। हालांकि उसकी बुद्धिपूर्ण बातों को मूर्खता का नाम ही दिया जाता था। हालांकि मुझे लगता है कि रूपा की बातें एकदम इस तरह की तो न थीं कि उन्हें बुद्धिहीनता की श्रेणी में रखा जाये। शायद वह अपनी स्थिति से अधिक जानना चाहती थी। संभवतः इसी लिये उसकी जिज्ञासाएं कुछ ऐसी हो जाती थीं जिन्हें हम अज्ञानता समझ सकते हैं।

  महान वैज्ञानिक एडिसन को बचपन में मूर्ख कहा जाता था। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन के विषय में उनके अध्यापकों की राय भी अधिक अच्छी नहीं बतायी जाती है। तो फिर जब कोई मनुष्य एक सीमा से अलग सोचने लगे, उसे मूर्ख ही माना जाता है।

   रूपा पढी नहीं थी। पर अनपढ भी न थी। पढाई के मुख्य तत्व चिट्ठी पढना और लिखना दोनों उसे आता था। उसकी लिखावट में एक छोटे बच्चे के लेखन की झलक होती थी। जो बड़ी धीरे धीरे बड़े बड़े अक्षरों को लिखकर जोड़ता जाता है।

पूरे परिवार की परिश्रम न करने की शपथ रूपा अकेले ही तोड़ती रहती। परिवार में किसी के पास कोई काम न था। पर रूपा के पास काम की कमी न थी। घर के काम निपटाकर बकरियों को चरा कर लाना, उनका दूध निकालना, बकरियों के छोटी छोटी लेड़ों को भी पीसकर इकट्ठा कर उपले बना लेना, सूखी लकड़ियां बीन लाना, हाथ के पंखे बनाते रहना, रस्सी बुनना, जैसे कितने ही काम वह करती रहती थी।

  मजाक में ही सही, पर सत्य बात सामने आ जाती है। एक दिन एक पड़ोसी महिला ने बोल दिया कि रूपा की शादी के बाद तो शायद घर में चूल्हा भी न जल पाये। ठेकेदारिन के भरोसे तो रोटियां भी न बनें। फिर दूसरों के लिये अति नम्र ठेकेदारिन का पूरा गुस्सा रूपा पर उतरा। पड़ोसी ऐसा तभी बोल सकते हैं जबकि लड़की ने ही चुगली की हो। रूपा की उसकी माँ ने जमकर पिटाई की।

  रूपा की शादी हो, ऐसी इच्छा तो न थी। शादी में खर्च करना पड़ेगा। घर के हालात भी ऐसे न थे। सबसे बड़ी बात कि रूपा की शादी के बाद घर का काम कैसे होगा। पर समाज के नियमों का पालन भी आवश्यक है। स्वजातीय बंधुओं के मध्य वर ढूंढने की तत्परता दिखानी ही होती है। कहना गलत न होगा कि अधिकांश स्थानों से पिता पुत्र को चाय पानी पिलाकर वापस कर दिया गया। पर किसी का विवाह होना है या नहीं, इसका विधान तो ईश्वर ही बनाते हैं।

  फिरोजाबाद का एक स्वजातीय परिवार किसी अज्ञात ईश्वरीय प्रेरणा से लड़की देखने आ गया। रूपा सुंदर थी, साधारण रूप की थी या कुरूप थी,यह मुख्य बात नहीं पर मुख्य बात यह है कि रूपा लड़के को बहुत पसंद आयी । वर पक्ष में से कोई भी विवाह के लिये तैयार न था। पर लड़के की हठ कि वह रूपा से ही विवाह करेगा।

  वर पक्ष ने एक पंडित जी का सहारा लिया। पंडित जी ने कुंडली देख बताया कि इस विवाह का कोई भविष्य नहीं है।यदि. यह विवाह हुआ तो उसके बड़े भयानक परिणाम होंगें। परिणामों की एक लंबी सूची उन्होंने लड़के को पढकर सुनाई।

  पंडित जी ने यह सब अपने ज्योतिष ज्ञान के आधार पर कहा अथवा उस भेंट की मर्यादा रखने के लिये कहा जो कि वर के पिता जी से उन्हें पहले ही मिल चुकी है कहा नहीं जा सकता। हालांकि पंडित जी का ज्योतिष ज्ञान भी लड़के की इच्छा शक्ति को डिगा न पाया। आखिर में रूपा के साथ ही उस लड़के की शादी तय हो गयी।

  गरीब लड़की की शादी है। घर बालों को कम से बरात का तो स्वागत करना ही होगा। पड़ोसियों के सहयोग से ठेकेदार साहब पर इतना धन इकट्ठा हो गया कि वे बारात की दावत आराम से कर सकें। बारात में मात्र बीस पच्चीस लोग आने थे। एक पड़ोसी ने अपने घर की बड़ी बैठक बरातियों के रुकने के लिये खोल दी। टैंट हाउस के गद्दों की व्यवस्था भी किसी पड़ोसी ने ही की।

  रूपा की बारात आयी। महिलाओं की चर्चा का प्रमुख विषय था कि रूपा ज्यादा सुंदर है या दूल्हा।

  बारात के भोजन के समय ठेकेदार साहब ने वर के पिता के पैर पकड़ लिये। हमारे पास कुछ नहीं है। अब पड़ोसियों से धन इकट्ठा होने के बाद भी बरातियों को अपने भोजन की व्यवस्था खुद करनी थी। एक बराती ढाबा से दाल, रोटियां लेकर आया जिसे खाकर बरातियों ने अपनी क्षुधा शांत की। उनमें से कुछ शांत थे। पर कुछ का गुस्सा सभी को सुनाई दे रहा था।

  जयमाला आदि के आधुनिक चोचलों को छोड़ रूपा का पाणिग्रहण संस्कार रात में हो गया। तथा सुबह के समय कन्यादान का आयोजन हुआ। इस बार रूपा ने चतुराई दिखाते हुए पड़ोसियो से प्राप्त कन्या दान की धनराशि जो चार पांच सौ रुपये से अधिक न होगी, अपने पति के हाथों में रख दी। रूपा का यह व्यवहार चर्चा का विषय बना। कुछ के हिसाब से रूपा ने गलत किया तो कुछ के अनुसार रूपा ने सही किया। नहीं तो संभव था कि ठेकेदार साहब वे सारे पैसे भी रख लेते। रूपा ने अपने पति की तरफ सोचा जो कि एक नारी के लिये आवश्यक है। विवाह के बाद एक स्त्री का सबसे पहले संबंध उसके पति से ही होता है।

  रूपा विवाह होकर विदा हो गयी। सचमुच दूसरे दिन घर में रोटी नहीं बन पायी। बचपन से पाली पुत्री को विदा करना कठिन ही होता है। पर दिन गुजरने के बाद भी भोजन बनाने में आरंभ हुई अनियमितता समाप्त न हुई। घर गंदगी का भंडार बनने लगा। आखिर एक दिन ठेकेदार ने खुद घर की झाड़ू लगायी। खुद चूल्हा जलाकर खाना बनाया। रूपा के जाने के बाद सफाई करना और खाना बनाना दोनों ही ठेकेदार साहब के जीवन का कर्तव्य बन गये।

  अभी इतना ही। रूपा की राम कहानी का कुछ हिस्सा शेष है। उसे कल लिखूंगा। आप सभी को राम राम।


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