(व्यंग्य)
नीम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर मदारी और जमूरा दोनों पस्त से अलसाए बैठे हैं। गर्मी इतनी कि दूर-दूर तक आदमी तो दूर, कोई जानवर तक नजर नहीं आ रहा। नीम के पत्तों में कोई हलचल नहीं. कोई खड़खड़ाहट नहीं..उमस से हलकान मदारी, जेब से रूमाल निकाल चहरे पर फिराते बोला - ‘जमूरे..’
‘हाँ उस्ताद..’ आदतन आलाप के स्वर में जमूरे ने हामी भरी.
‘जमूरे...अब इस मदारी के धंधे में कोई दम नहीं रहा...लाख डमरू घुमाओ..डुग डुगी बजाओ..गला फाड़ चिल्लाओ..पर तमाशा देखने कोई जुटता ही नहीं..’
‘ठीक कहा उस्ताद..’ जमूरे ने उत्तर दिया- 'पहले तो एक बार डमरू बजाओ और मिनटों में चींटियों की तरह तमाशबीनों की भीड़ लग जाती..बच्चे तो बच्चे,बड़े-बूढ़े तक डमरू की गमक से खिंचे चले आते थे।’
‘हाँ जमूरे..अब तो बच्चे तक नहीं ठहरते..रिक्शे में लदे,बढ़िया यूनिफार्म पहने, टा टा करते बाजू से निकल जाते हैं.. पर नजर तक नहीं डालते..देखते ही देखते सब कुछ कितना बदल गया न ..’ मदारी ने आह भरते कहा।
‘हाँ उस्ताद..बन्दर-भालू के करतब देखने कैसे बच्चे उमड़े पड़ते थे..और तो और बड़े-बूढ़े भी बच्चों की आड़ में जानवर का तमाशा देखने जुट जाते थे। सत्यानाश हो पी.एफ.ए. वालों का (पीपुल फॉर एनिमल्स) जिन्होंने जीव बचाओ अभियान के तहत हम गरीब जीवों को ही मार डाला। अब भला इस डी.जे.और धमाल बाजा के युग में एक डमरू की क्या औकात कि तमाशबीन जुटा सके, कोई भीड़ जुटा सके।’
‘जमूरे, समझ नहीं आता कि क्या करें? इन दिनों भीड़ जुटाना बेहद “टफ” हो गया है..ठीक है..कई साल पुराने खेल रोज-रोज भला कौन देखेगा? लेकिन अब कोई नया खेल भी कहाँ से ईजाद करें? अब या तो हमें ये धंधा बंद कर देना चाहिए या फिर इसे “हाईटेक” करने की कोशिश करनी चाहिए..’
‘उस्ताद, अब भला मदारी के खेल को कैसे और क्या “हाईटेक” करेंगे?’ जमूरे ने सवाल दागा।
‘ठीक उसी तरह जमूरे..जैसे पिछले दिनों एक राजनीतिक पार्टी ने चुनाव-प्रचार की टेक्नोलोजी को हाईटेक किया और उसी के बल पर आसानी से चुनावी-जीत का वरण भी किया।’
‘पर उस्ताद..चुनाव-चुनाव है..उसके प्रचार-प्रसार और भीड़ जुटाने के तरीके “हाईटेक” हो सकते हैं पर मदारी के खेल में इसकी कहाँ गुंजाइश है?’ जमूरे ने संदेह व्यक्त किया।
‘हाईटेक की गुंजाइश हर फील्ड में रहती है जमूरे। ज्यादा दिमाग न खपाते हुए इन नेताओं से ही कुछ सीखो। तुम तो पढ़े-लिखे हो न? अब इनके दिए नारे से ही हम भीड़ जुटाएंगे.. “अच्छे दिन आने वाले हैं” पर तुम एक स्क्रिप्ट तैयार करो। कल रामलीला मैदान में एक नया तमाशा करते हैं। देखते हैं, भीड़ कैसे नहीं जुटती, तमाशबीन कैसे नहीं आते।’
‘ठीक है उस्ताद, मैं कुछ सोचता हूँ, रात को लिखकर आपको बताता हूँ।’
दूसरा दिन...रामलीला का मैदान...सुबह के दस बजे.....
जमूरा चादर ओढ़े जमीन पर लेटा है और मदारी डमरू बजा जोर-जोर से चिल्ला रहा है- ‘मेहरबान...कदरदान.. आइये..अपने जमूरे से जानिये कि आपके अच्छे दिन कब आने वाले। देश में तो यह नारा तैर ही रहा लेकिन कब, कैसे, कहाँ और किसका? ये किसी को नहीं मालूम..सरकार को भी नहीं मालूम; लेकिन जमूरे को सब कुछ मालूम है। आईये..आईये..आईये और अपने अच्छे दिनों का मिनटों में हिसाब लीजिये..ऐसा अवसर फिर नहीं आने वाला।’
थोड़ी ही देर में पूरा मैदान तमाशबीनों से खचाखच भर गया..खेल आरम्भ हुआ।
‘जमूरे..जो पूछेगा..बतलायेगा? ‘
‘हाँ उस्ताद..जरुर बतलायेगा ..’
‘ये हलकी दाढ़ी वाले साहब जो सफ़ेद कुरते पाजामें में शहजादे की तरह कुछ बुझे-बुझे से खड़े हैं- क्या इनके अच्छे दिन आयेंगे?’ मदारी ने पूछा।
‘हाँ उस्ताद..ये बरसों बाद अब नानी के घर जायेंगे..’ जमूरे ने जवाब दिया।
तमाशबीनों ने जोरदार ताली बजाकर शहजादे की ओर मुखातिब हो शुभकामनाएं दीं।
‘जमूरे, ये दुबले-पतले सज्जन जो मफलर बांधे, सफ़ेद टोपी लगाए बार-बार खांस रहे..”आप” की तरह हांफ रहे , इनके अच्छे दिन....’
‘लद गए उस्ताद..’ जमूरे ने बात पूरी भी नहीं होने दी और जोर से कहा- ‘.दिल्ली में रहते भी अब दिल्ली कोसों दूर है... कभी “आप” हम पर कभी हम आप पर.. यही दुनिया का दस्तूर है..’
भीड़ ने फिर जोरों की ताली बजाई।
‘जमूरे..ये सफ़ेद पाजामें-कुरते में जो काली दाढ़ीवाले बुजुर्ग ( पर जवान से ) नेताजी खड़े हैं, इनके” अच्छे दिनों” के बारे में बताओ? ‘मदारी ने कहा.
‘उस्तादजी...ये तो उस्तादों के उस्ताद हैं..इन्हें अच्छे दिनों का कभी इंतज़ार नहीं रहता.. अच्छे दिन इनका इंतज़ार करते हैं....सरकार कोई भी हो – सबमें शपथ लेते हैं...लोग चिराग लेकर ढूँडते हैं फिर भी “ पद ” नहीं मिलता है ..इन्हें बिन मांगे सब मिल जाता है..फिर भी आजकल “चिराग” लिए घूमते हैं...आगामी पांच सालों का प्लान किये चलते है।'
तमाशबीनों ने फिर एक बार तालियों की गडगडाहट से मैदान को गूँजा दिया. नेताजी भी मुस्कुराए बिना नहीं रह सके. .
‘जमूरे.ये भगुवा वस्त्र वाले,काली दाढ़ीवाले बाबा को जानते हो ‘मदारी ने जमूरे से पूछा.
‘हाँ उस्ताद..ये काले धन वाले बाबा हैं..इनके तो “बल्ले-बल्ले “ हैं.. अच्छे दिन आने ही वाले हैं..”सिट” ( SIT) तो बैठ गई..अब चलती कब है- देखना है..वैसे भी कई वर्षों से बाबा चिल्ला रहे तो सबने तो अपना “जमा” अब तक निकाल ही लिया होगा...कहीं “ डांडियाखेडा ” जैसी बात न हो जाए..वापस एक चवन्नी भी न आ पाए..’
तमाशबीनों ने फिर एक बार खूब ताली पीटी ..सीटी बजाई. बाबाजी थोडा चिंतित नजर आये.
‘जमूरे..यहाँ जैकेट पहने खड़े कविजी जो पिछले दिनों कहीं और खड़े थे और वहां से जो भाग खड़े हुए, इनके बारे में बताएं कि अच्छे ( या बुरे ) दिन अब इन्हें कहाँ खड़ा करेंगे?
‘इस दीवाना-पागल से बस यही कहेंगे उस्ताद कि अच्छे दिन आ सकते हैं..पुनः मंचस्थ हो सकते हैं बशर्तें अब कहीं और खड़े होने का जहमत न उठायें. .”कुर्सी” में बैठने का दिवास्वप्न न अपनाये..शेर की तरह न गुर्राए..क्योंकि जो गरजते हैं-वो बरसते नहीं..’
इसके पहले कि मदारी जमूरे से कोई और सवाल पूछता एकाएक भीड़ में खलबली मच गई..लोग इधर-उधर भागने लगे जैसे कोई भूचाल आ गया....एक क्षण तो मदारी को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन जब पुलिस सायरन की आवाज करीब से आई तो समझ गया कि खेल ख़तम..आठ-दस पुलिस के जवान मदारी की ओर लपके..दो-तीन जवानों ने जमूरे की चादर खींच उसे पकड़ा.. सारे तमाशबीन इधर-उधर भाग गए.. पुलिसवाले ने डंडा दिखाते कहा- ‘बिना परमिशन के मीटिंग करते हो..प्रदर्शन करते हो.. तमाशा करते हो..चलो थाने...’
मदारी गिडगिडाया – ‘हुजुर.. मैं तो लोगो को केवल बता रहा था कि अच्छे दिन कब- कैसे आयेंगे.. कौन कब कहाँ कैसे जायेंगे..सरकार के दिए नारे को ही समझा रहा था.. मदारी का खेल दिखा रहा था।
बीच में ही उसकी बात काटते अधिकारी ने कहा- ‘थाने चलो..हम समझाते हैं तुम्हे कैसे आयेंगे-अच्छे दिन। किसी के आये न आये पर जान लो – तुम्हारे तो जरुर आ गए... बुरे दिन... अब जेल में चक्की पीसो रात और दिन..’
इतना कह उस पुलिस अधिकारी ने मदारी को वैन के भीतर धकेल दिया. जमूरा पहले से वहां दुबका बैठा था. मदारी उसे घूरते मन ही मन बुदबुदाया - “ मति मारी गई थी कि नालायक से स्क्रिप्ट लिखाया..खेल को हाईटेक करने का (गलत) बीड़ा उठाया..दूसरों का भविष्य बांचते अपने वर्त्तमान को उलझाया..”
इधर जमूरा भी मदारी को देख मन ही मन बुदबुदा रहा था - ‘अच्छे दिनों के चक्कर में उस्ताद ने क्या बुरा फंसा दिया ..चुनावी नारे के चलते सरकारी मेहमान बना
दिया।’
-प्रमोद यादव