हटिया खुली बजाजा बंद, झाड़े रहो कलट्टर गंज...
फागुनी मस्ती में शहर के पुराने रईस व सेठों द्वारा उभरते सेठों पर फब्ती है जो बहुचर्चित हुई। आज यह होली की फब्ती हर ज़ुबान पर होती है। आइए इसकी दास्तान जानें। सन् 1866 में शहर के कलेक्टर डब्लू एच हालसी ने अनाज मण्डी का उद्घाटन दशहरे के अवसर पर किया। इससे पहले अनाज मंडी दौलतगंज में थी। हालसी द्वारा स्थापित नई मंडी कलेक्टर गंज कहलायी। इसके आसपास ईंट भट्ठों की ज़मीन बराबर कर नयी आबादी कायम की गयी। इसमें बहुत से सेठ-साहूकारों के मुनीम व कर्मचारियों ने ठिकाना बनाया और आबाद हुए। अनाज मंडी में कानपुर नगर देहात सहित बैसवारा व बुन्देलखण्ड के लोग बैलगाड़ियों में अनाज भरकर बेचने आते। रात में मंडी के आसपास गाड़ियाँ लगा देते और बैलों के सांई-चारा में व्यस्त हो जाते। वहां रहने वाले लोग परखी से माल देखने के बहाने बोरे छेद देते जिससे बखारी व बोरों से अनाज रात भर में पर्याप्त मात्रा में झर कर बाहर गिर जाता। सुबह साफ़ सफ़ाई के बहाने घरों के बाहर से गाड़ियां हटवा देते और अनाज को झार कर बटोर लेते। अनाज बटोरने वाले बहुत से सेठ बन गए। तब होली के अवसर पर पुराने सेठों ने वहां मौजूद नए सेठों पर झाड़े (झारे) रहो कलेक्टर गंज की फब्ती कसी जो आज सबसे ज़्यादा प्रचलित है।
हटिया, शहर की होली की परम्परा का केंद्र है। सन् 1874-75 में हटिया में चबूतरे बने और हाट लगने लगी। सन् 1942 में राष्ट्रीय आन्दोलन चरम पर था और हटिया का नवजीवन पुस्तकालय क्रांतिकारियों का केंद्र था। उन दिनों सात दिनों तक होली मनाई जाती थी जिसे तत्कालीन कलेक्टर ने रोक दिया। क्रांतिकारियों को यह नागवार गुज़रा और उन्होंने पार्क में तिरंगा फ़हरा कर होली जलाई और भारत माता की जय आदि के नारे के साथ फागुनी, फाग की मस्ती में डूब गए। घटना की जानकारी पर कलेक्टर ने पार्क को घेर लिया और 43 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। उनमें लाला बुद्धलाल, गुलाब चन्द्र सेठ,हमीद खाँ, इक़बाल कृष्ण कपूर, बाल कृष्ण शर्मा नवीन, शिवनारायण टण्डन, जागेश्वर त्रिवेदी, रघुवर दयाल भट्ट और विश्वनाथ मेहरोत्रा आदि थे। गिरफ़्तारी के विरोध में व्यापारियों ने बाजार बंद रखे। आखिर प्रशासन झुका और सभी को रिहा किया गया। रिहाई के बाद रंगों का त्यौहार होली मनाया गया और इसे गंगा मेला नाम दिया गया। दिन भर रंगों की मस्ती के बाद शाम को गंगा स्नान कर शिष्टाचार भेंट करने की परम्परा कायम है।
होली की संस्कृति का शहर में पहले भी मनोरंजक रूप देखने सुनने को मिलता रहा है। शहर के नामी होरिहारों में पंडित प्रतापनारायण मिश्र का नाम आता है। होली के हुडदंग के बीच उन्होंने 15 मार्च 1883 को 'ब्राह्मण' पत्र भी शुरू किया था। उनके होरिहारपन के आगे पुलिस व सेठों को भी झुकना पड़ा। कहा जाता है होली के अन्झा में मिश्र जी चौक के लाला देवी प्रसाद खत्री के दरवाज़े पर जम गए और भंग की तरंग में रात भर अश्लील कबीरे गाते रहे। कबीरे सुन-सुन कर घर व बाहर लोग जमा हो गए। लाला जी ने खिसियाकर पुलिस बुला ली लेकिन 'ब्राह्मण' संपादक से पुलिस भी नतमस्तक हुई और मिश्र जी लाला देवी प्रसाद से नेग लेकर ही उठे। मिश्र जी की होली पर 21 कविताएँ साहित्य उपलब्ध है। उन्होंने अश्लील कबीरों पर फाल्गुन महात्म्य शीर्षक किताब भी लिखी थी जो फाल्गुन मास में पढ़ी जाती थी। अब यह कृति विलुप्त हो गई है।
-अनूप कुमार शुक्ल
(संपादक 'मात्रस्थान' हिंदी मासिक पत्रिका)