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साँप का ज़हर भी बेअसर था उस पर...

5 मार्च 2016

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वो देखने में तो सींक-सलाई था लेकिन दुस्साहस में हिटलर से कम नहीं। ऊँची-ऊँची जगहों से खेल-खेल में कूद जाना, ज़हरीले कीड़े-मकोड़ों को बेवजह हाथ से पकड़ना और वो तमाम करतब जिनसे वो लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच सके, वो सब करने से वह कभी नहीं चूकता था। क़रीब सोलह-सत्रह बरस का रहा होगा उन दिनों। शायद १०वीं कक्षा में रहा होगा जब दोस्तों के साथ उसे मैनपुरी तम्बाकू खाने की लत लगी थी। घर में सभी अच्छे पढ़े-लिखे थे और पैसे की कोई कमी नहीं थी लेकिन नशे-पत्ती के लिए रोज़-रोज़ पैसा कौन दे, इसलिए पढ़ाई के साथ-साथ वह इलेक्ट्रीशियन का काम करने लगा। जो भी पैसे मिलते थे उससे मैनपुरी तम्बाकू और फिल्में देखने की लत पूरी हो जाती थी।


माँ, पढ़े-लिखे ख़ानदान से थीं, लेकिन लड़के की हरकतों को देखकर भी अनदेखी करती थी और उसकी बेजा तरफ़दारी करती थी। पिता, जब तक वश चला उसे डाँटते-डपकते रहे, लेकिन वो जैसे-जैसे बड़ा होता गया उसकी हरकतें भी बढ़ती गईं और वो खुलकर घर वालों का विरोध भी करने लगा। १० वीं की परीक्षा पास करने में उसे ५-६ साल लगे थे। लेकिन ये भी सच था कि इतने वर्षों में उसे अपने विषयों पर बहुत अच्छा कमांड हो गया था। फिर भी ग़लत राह के चलते वह आगे की पढ़ाई नहीं कर सका।


क़रीब २१ बरस का होगा जब उसकी एक ज़मीन बिकी और उसके हिस्से में एक मोटी रक़म आ गई। जेब गरम हुई तो स्टेटस तम्बाकू से ऊपर व्हिस्की और रम की बातें करने लगा। तब तक पढ़ाई छूट चुकी थी और बन्दे को एक लड़की से इश्क़ हो गया। इस तरह बर्बादी का पूरा सामान तैयार हो चुका था। चोरी-चुपके उसने उसी लड़की से शादी कर ली। पत्नी तो घर नहीं आ पाई, अलबत्ता मामला कोर्ट-कचहरी तक ज़रूर पहुंचा। नशा-पत्ती इस क़दर बढ़ता गया कि शराब बेअसर होने लगी।


हिस्से में आई रक़म धीरे-धीरे घिसने लगी। अब वह नशे के इंजेक्शन लेने लगा। लेकिन इसकी भी एक सीमा थी। इंजेक्शन लगाते-लगाते उसके शरीर पर जगह-जगह घाव हो गए। नशा तो नशा था, दिल-ओ-दिमाग़ कब मानने वाला। मानो उसके लिए दर्द का भी एक अलग मज़ा था। इंजेक्शन का नशा भी बेअसर हो चला। फिर एक रोज़ उसने एक संपेरे से काला साँप खरीद लिया। उस साँप का ज़हरीला डंक काफ़ी दिनों तक उसका नशा पूरा करता रहा। एक पैर का घाव इतना बढ़ा कि डॉक्टर को उसकी वो टांग काटनी पड़ी। वो जिस मकान में रहता था, उसे अपना हिस्सा बेचकर इलाज करवाना पड़ा। उसकी आखों की रौशनी भी जाती रही।


कुछ बरस पहले उस गली से गुज़रा तो उसका हाल पूछा। लोगों से पता चला कि पैर कटने के बाद तो ठीक होकर आ गया था लेकिन उसका नशा फिर भी बंद नहीं हुआ था। एक रोज़ ऐसे सोया कि फिर नहीं उठ सका।


ऊर्जा कितनी भी हो, हिम्मत भले ही चौंकाने वाली हो, दिशाहीनता इंसान को निश्चय ही गर्त में ले जाती है। काश, उसकी माँ उसकी गलतियों पर परदा न डालती ! काश, वो अपने पिता की डाँट-डपट से सुधर जाता ! काश, बिकी ज़मीन से मिली रक़म से वो कुछ सार्थक कार्य करता ! उन्नति-अवनति और सृजन-विनाश, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आदमी की क्षमताओं का कोई पारावार नहीं, बात बस इतनी है कि जो जिस तरफ़ चल पड़े... !

-ओम प्रकाश शर्मा


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