(व्यंग्य)
अगर डरता हूँ तो केवल कुत्तों से।
ये ख़ौफ़ बचपन से मुझ पर हावी है। स्कूल से छुट्टी होते ही घर लौटते समय टॉमी का इलाका पडता था। मजाल है कि कोई उससे बच के निकल जाए ? क्या साइकिल क्या पैदल ,क्या अमीर क्या गरीब, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, सब को सेकुलर तरीके से दौड़ा देता था। हम बस्ता लटकाए एक कोने में दुबके हुए से रहते कि कब टामी का ध्यान बटे और हम तड़ी-पार कर जाएँ। विपरीत दिशा में आते हुए लोगो पर उसका भौकना चालू होता था, कि हम टाइमिंग एडजस्ट कर् लेते थे कि इतने सेकण्डो में हम टामी क्षेत्र से बाहर निकल जायेंगे। कभी कभी हमारा गणित फेल हो जाता था वो आधे रास्ते अपने पुराने शिकार को छोड़ हम पर पिल जाता था। बस्ते को उस पर पटकते–फेकते, बजरंग बली की जय जपते, हांफते घर पहुचते। घर में डाँट पडती, फिर टामी को छेड़ दिया न। बता देती हूँ चौदह इंजेक्शन लगेगे, वो भी पेट में। हम अपनी सफाई क्या देते, क्या समझाते कि किस सिचुएशन में फंसे थे ?
प्रेमिका भी मिली तो उनके घर में कुत्ता था। वो मोबाइल युग नहीं था जो जाने के पहले चेताते। कालबेल दबाते ही भौकना चालू। माँ-बाप, भाई-बहन सब एक सुर में... "नइ सुसैन नइ....भौकने का नइ..." मै उससे कोफ्त से कहता ..."जब तक ये तुम्हारा कुत्ता है...।" मै आगे कुछ बोलता इससे पहले वो बोल देती , "कुत्ता नहीं ...क्या गंवारो जैसे बोलते हो.....? नाम नहीं ले सकते तो कम से कम डॉगी तो बोला करो।" मै कहता या तो तुम डॉगी सम्हालो या मुझे .....और जानते हैं न, वो डॉगी सम्हालने में लग गई।
पच्चीस सालों बाद अचानक एक बड़े शहर के शापिंग माल में दिखी ,मैंने अचकचाते हुए कहा, "रेणु तुम ? वो एकटक देखने के बाद, जैसे सोते से जगी हो गदगद होके बोली, "क्या सुशी, बहुत अरसे बाद मिले, कहाँ थे...क्या करते हो ? कुछ खबर ही नहीं दी ?" मैंने जवाब देने के पहले पूछा, "कहाँ है तुम्हारा कुत्ता ...? वो झेपते हुए बोली, फिर वही .....? डॉगी की पूछ रहे हो, सुसैन की डेथ हुए तो बीसों साल बीत गए। मैंने हलके-फुलके माहौल करने की गरज से कहा, दूसरा वाला कहाँ है ? वो इशारा समझ के बोली, "क्या तुम अब भी मजाक के मूड में रहते हो ? छेड़ने से बाज नहीं आते ......? वो दुबई में रहते हैं। साल में एक दो बार आ पाते हैं। मैं यहाँ पढ़ाती हूँ, बच्चे सब सेटल हो गए। तुम अपनी कहो।" मेरी सुनने-सुनाने के लिए काफी-हाल चलना होगा, चलो बैठते हैं। बहुत इत्मीनान और तसल्ली से जी भर के बातें हुई। एक–एक यार दोस्तों की खबर लेते-देते, कैफे बंद करने का समय हो गया। जाते–जाते वो बोली, "घर आओ कभी।" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा, "डॉगी तो नहीं है न ?"
वो बोली, "अभी तक तो नहीं है ...हाँ, अगर तुम ज्यादा चक्कर मारने लगोगे तो जरुर एक पाल लूंगी।"
पच्चीस साल पुरानी वाली खिलखिलाहट हवा में तैर गई...
-सुशील यादव