लद गए वो दिन जब आदमी से हाल पूछो तो बड़ी मायूसी से कह देता था, 'बस, चल रही है दाल-रोटी किसी तरह'। अब धोखे से भी ये जुमला मुंह से निकल जाए तो कौन जाने दूसरे ही दिन डाका पड़ जाए। ये मज़ाक नहीं, बल्कि आज की हक़ीक़त है। 20 रूपए किलो आटा और 160 रूपए किलो दाल का भाव उस आदमी को ज़रूर रटा होगा जो सुबह से शाम तक मेहनत-मज़दूरी करके परिवार का भरण-पोषण करता है। वास्तव में ये बहुत मँहगा नहीं है। आटा, 200 रूपए किलो बिके तो भी मंहगा कैसे कह सकते हैं। ऐसी बहुत सी चीज़ें बड़े चाव से खाई जाती हैं जो इससे भी मंहगी हैं, और जिन्हे खाए बिना जिया भी जा सकता है जबकि आटा-दाल-चावल ऐसे खाद्य हैं जिनके बिना जीवन मुश्किल हो जाता है। आटा-दाल खूब मंहगा बिके लेकिन शर्त ये हो कि यह कीमत उस ग़रीब से ग़रीब किसान को भी मिले जो हाड़तोड़ मेहनत करके इसे उगाता है।
संसद में बात चली कि सरकार के सामने ये जानकारी रखी गई है कि बड़े ट्रेडर्स और आयातकर्ता भारत से बाहर किसी दूसरे देश में दाल की जमाखोरी कर रहे हैं। खाद्य मंत्रालय के सामने ये जानकारी आई, लेकिन पता चला, इशेन्शियल कमोडिटिज एक्ट 1955 और दूसरे कानूनों के तहत कानूनी कार्रवाई सिर्फ स्थानीय जमाखोरों के खिलाफ ही शुरू की जा सकती है। जबकि सच यह है कि स्थानीय जमाखोर तो इस बीमारी का एक छोटा हिस्सा हैं। देश का अन्न देश-भर के लिए पर्याप्त से भी अधिक है।
वास्तव में जीवन से जुड़े आटा-दाल-चावल जैसे अति आवश्यक खाद्य और जीवन रक्षक दवाइयों आदि का व्यापार नहीं होना चाहिए। व्यापार के लिए तम्बाकू, शराब, सिगरेट आदि पर्याप्त हैं। कुछ शेष रहना चाहिए जो शर्राफा और शेयर बाज़ार में न उतारा जाए। किसान और मज़दूर से जुड़े सरोकार पर सरकार की सुरक्षात्मक दृष्टि पर सवाल खड़े हो जाते हैं जब जमाखोर तो धनवान होते जाते हैं लेकिन मज़दूर और किसान कमज़ोर होता जाता है। सरकार की कोई ऐसी योजना होनी चाहिए जिसके तहत दाल-चावल-आटा जैसी अति आवश्यक चीज़ें इतने कम दाम पर उपलब्ध हों कि आर्थिक रूप से कमज़ोर तबका भी रोज़ी-रोटी के बोझ से राहत महसूस कर सके। सरकार की ऐसी अनेक योजनाएं हैं जिनके माध्यम से किसानों को उनकी मेहनत का सीधा लाभ मिल सकता है लेकिन अफ़सोस ये है कि फायदा आज भी जमाखोरों को ही मिल पाता है।