जमींदार शारदाशंकर के परिवार के साथ उनके रानीघाट स्थित बड़े से घर में रह रही विधवा कादम्बिनी का अब कोई निकट सम्बन्धी नहीं बचा था। एक एक करके सब मर गये थे। उसके पति के परिवार में भी कोई ऐसा नहीं था जिसको कि वह अपना कह सके या जिसका कोई पति या बच्चा हो सिवाय एक छोटे बच्चे के जो कि उसके पति के बड़े भाई का बेटा था व कादम्बिनी की आँख का तारा था।
उस बच्चे की माँ उसके जन्म के पश्चात् बहुत बीमार पड़ गई थी इसलिये उसका पालन पोषण उसकी काकी कादम्बिनी ने किया था। जब कोई किसी और के बच्चे को इतने लाड़ प्यार से पालता है तो उनके बीच में केवल एक ही सम्बन्ध रह जाता है और वह है प्रेम का सम्बन्ध। उस सम्बन्ध में अधिकार या सामाजिक नियम कोई मायने नहीं रखते। प्रेम को कोई किसी कानूनी दस्तावेज के द्वारा प्रमाणित नहीं कर सकता ओर न ही स्वयं प्रेम की यह अभिव्यक्ति होती है।प्रेम केवल और प्रगाढ़ ही हो सकता है क्योंकि यही इसका रूप है।
कादम्बिनी ने अपने कुंठित वैधव्य का सारा प्यार इस बच्चे पर अर्पित कर दिया था कि सावन की एक रात कादम्बिनी की अकस्मात् मृत्यु हो गई। किसी अज्ञात कारणवश उसकी हृदयगति रुक गई। हर जगह समय अपनी गति से चलता रहा परन्तु इस एक छोटे से प्यार से परिपूर्ण हृदय में इसकी घड़ी की सुई चलनी बन्द हो गई। इस मामले को पुलिस की निगाह से दूर व चुपचाप रखने के लिये जमींदार के घर के चार ब्राह्मण कर्मचारियों ने उसके शव को जला दिया।
रानीघाट में श्मसान घाट बस्ती से बहुत दूर एक निर्जन स्थान पर था। वहाँ एक पानी की नाँद के किनारे एक झोपड़ी व उसके बगल में एक विशाल बरगद के वृक्ष के अतिरिक्त कुछ और नहीं था। इस नाँद को वहाँ बहुत समय पहले बहने वाली एक नदी, जो कि अब सूख गई थी, के सूखे हुए हिस्से को खोद कर बनाया गया था व स्थानीय लोग इस नाँद को नदी की एक पवित्र धारा मान कर पूजते थे। ये चार लोग शव को झोपड़ी के अन्दर रख कर चिता के लिये लकड़ी के पहुँचने की प्रतीक्षा करते हुए बैठे थे। लम्बी प्रतीक्षा के बाद वे व्याकुल होने लगे व उनमें से दो व्यक्ति, निताई व गुरुचरण बाकी दोनों व्यक्तियों, विधू व बनमाली, को शव की देखरेख करता हुआ छोड़कर बाहर ये देखने गये कि लकड़ी के आने में इतना विलम्ब क्यों हो रहा है।
वो एक बरसात की काली घटाओं वाली रात थी। आकाश में काले बादल घुमड़ रहे थे और तारे दिखाई नहीं दे रहे थे। झोपड़ी में दो लोग चुपचाप बैठे थे। उनमें से एक के पास उसकी चादर में लिपटी हुई माचिस व मोमबत्ती थी लेकिन वे इस ठंडी हवा में माचिस जला नहीं पाये, इसके साथ साथ लाई हुई लालटेन का तेल भी खत्म हो गया था। कुछ क्षणों की शान्ति के बाद, उनमें से एक बोला, "भाई, अगर हमारे पास थोड़ी तम्बाकू रहती तो कितना अच्छा रहता। हम जल्दबाजी में सबकुछ भूल गए।" दूसरा व्यक्ति बोला, "मैं जाकर दौड़ के थोड़ी सी लेकर आता हूँ। एक मिनट से ज्यादा नहीं लगेगा।" विधू उसकी बात समझते हुए बोला, "अच्छी बात है, तो मैं यहाँ खुद अकेला रुकूँ क्या?’ दोनों फिर से चुप हो गये।
पाँच मिनट एक घंटे के बराबर लग रहा था। दोनों अपने आप को मन ही मन कोसते हुए सोच रहे थे कि लकड़ी लेने गये बाकी दोनों लोग आराम से कहीं बैठकर बीड़ी फूँक रहे होंगे व गप्पें मार रहे होंगे और जल्द ही उनको अपना यह अहसास सच भी लगने लगा था। तालाब के किनारे मेंढकों के टर्राने की व झींगुरों की आवाज के अतिरिक्त कहीं कोई आवाज नहीं थी। तभी अचानक उनको ऐसा लगा कि पलंग थोड़ा हिल सा रहा है व शव ने एक तरफ करवट ली है। विधू और बनमाली थरथर काँपने लगे और भगवान को याद करने लगे। अगले ही क्षण एक लम्बी सी आह सुनाई दी जिसे सुनते ही वे दोनों तुरन्त बाहर भागे व गाँव की ओर दौड़ने लगे।
कुछ मील दौड़ने के बाद, वे रास्ते में बाकी दोनों साथियों से मिले जो हाथों में लालटेन लिये हुए थे। उन दोनों ने सच में बीड़ी फूँकी थी और उनको लकड़ी के बारे में कुछ अता पता नही था। उन्होंने झूठ बोलते हुए कहा कि लकड़ी कट रही है व थोड़ी देर में पहुँचने वाली है। तब विधू व बनमाली ने उनको झोपड़ी में जो हुआ कह सुनाया। निताई व गुरुशरण बोले कि ये सब बकवास है व उन दोनों को अपनी जगह छोड़ के भागने के लिये फटकारने लगे।
वे चारों तुरन्त श्मसान घाट की झोपड़ी की तरफ लौटे। अंदर जाकर उन्होंने देखा कि पलंग खाली था और लाश का कोई अतापता नहीं था। वे एक दूसरे की तरफ घूरने लगे। क्या यह भेड़ियों का काम हो सकता है? लेकिन यहाँ तो वो कपड़ा भी नहीं था जिससे उन्होंने लाश को ढका था। झोपड़ी के चारों तरफ ढूँढ़ने पर उन्होंने दरवाजे के पास मिट्टी में कुछ ताजा व छोटे पदचिन्हों को देखा जो कि किसी औरत के प्रतीत होते थे। अब समस्या यह थी कि यह बात जमींदार को कैसे बताई जाए। जमींदार शारदाशंकर मूर्ख नहीं थे जो कि भूत की बात का विश्वास कर लें। लम्बे विचार विमर्श के बाद उन्होंने सोचा कि वे कहेंगे कि उन्होंने शव की अंत्येष्टि कर दी है।
सूर्योदय के समय जब कुछ व्यक्ति लकड़ी लेकर आये तो इन चारों ने उनसे कह दिया कि देर हो जाने की वजह से उन्होंने झोपड़ी में रखी लकड़ी से ही शवदाह कर दिया। उन लोगों को इस बात पर शक करने का कोई कारण नहीं था। एक शव कोई ऐसी बहुमूल्य वस्तु तो है नहीं कि जिसे कोई चुरा ले।
यह संभव है कि कभी कभी एक शरीर जो कि मृत प्रतीत होता है, असल में जीवित होता है किन्तु सुषुप्तावस्था में अचेतन होता है व वो कुछ समय बाद फिर से जीवित हो सकता है। सच में कादम्बिनी मरी नहीं थी, किसी कारणवश वो मृतप्रायः या अचेतन हो गई थी किन्तु अब फिर से ठीक हो गई थी।
जब उसको होश आया, उसने अपने चारों तरफ अँधेरा देखा। उसने पाया कि यह जगह उसके सोने का कमरा नहीं थी। उसने एक बार दीदी कहकर पुकारा किन्तु अँधेरे में कोई उत्तर नहीं आया। उसको अपनी छाती में दर्द उठना व साँस का रुकना याद आया और वो उठ बैठी। उसको याद आया कि उसकी सबसे बड़ी जेठानी कमरे के कोने में बैठकर स्टोव पर बच्चे के लिये दूध गरम कर रही थी कि तभी उसको खड़े होने में असमर्थता महसूस हुई और वो पलंग पर गिर पड़ी। उसने हाँफते हुए पुकारा, "दीदी, मुन्ने को मेरे पास लाओ, मुझे लगता है मैं मरने वाली हूँ।" तभी उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया ऐसे जैसे कि किसी लिखे हुए कागज के ऊपर स्याही फैल गई हो। उस क्षण कादम्बिनी की सारी स्मरणशक्ति व चेतना में, उसके जीवन की किताब के अक्षरों में भेद करना असम्भव सा हो गया। इस समय उसको यह भी याद नहीं रहा कि उसके भतीजे ने अपनी मीठी आवाज में उसको आखिरी बार काकी माँ कहकर पुकारा था, कि उसको प्रेम की दवा की आखिरी पुड़िया मिली थी जो कि उसकी इस संसार से मृत्यु की अनजानी व कभी भी समाप्त न होने वाली यात्रा पर देखभाल करेगी।
उसको लगता था कि मृत्यु के स्थान पर अँधेरे व निर्जनता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। वहाँ देखने व सुनने के लिये कुछ भी नहीं था और वो वहाँ हमेशा जागते हुए बैठे रहने व प्रतीक्षा करने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकती थी। तभी उसको खुले हुए दरवाजे से हवा का एक ठंडा व गीला झोंका महसूस हुआ, बरसाती मेंढकों के टर्राने की आवाज सुनाई दी और उसको बचपन से लेकर अब की सारी बातें यकायक याद आ गईं। उसको लगने लगा कि उसका इस संसार से अभी भी कुछ रिश्ता है। तभी अचानक बिजली की चमक में एक पल में उसको नाँद, बरगद का पेड़, बड़ा सा मैदान व पेड़ों की कतार दिखाई दिये। उसको याद आने लगा कि कैसे उसने कुछ शुभ अवसरों पर उस नाँद में स्नान किया था, कैसे श्मसान घाट में मृत शवों को देखकर उसको मृत्यु की भयावहता का अहसास होने लगता था।
उस समय उसके मन में जो पहला विचार आया वो था घर लौटने का। पर तभी उसने सोचा, "वे लोग मुझे वापस स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि उनकी नजरों में मैं जीवित नहीं हूँ। यह उनके लिये एक श्राप की तरह होगा। मुझे जीवितों की धरती से निकाल दिया गया है और मैं जीवित मृत हूँ। अगर ऐसा नहीं होता तो कैसे वो शारदाशंकर के घर की सुरक्षित चाहरदीवारी से बाहर निकल कर इस सुदूर श्मसान घाट तक पहुँच गई थी। परन्तु यदि दाह संस्कार का काम अभी तक समाप्त नहीं हुआ है तो उन लोगों का का क्या हुआ जो उसको जलाने आये थे।, उसको शारदाशंकर के घर में मरने से पहले बीते हुए अंतिम पल याद आने लगे और अपने आप को इस दूर एक श्मसान घाट में पाकर, उसने अपने आप से कहा, "मेरा अब जीवित लोगों के संसार से कोई सम्बन्ध नहीं है। मैं डरावनी हूँ, बुराई का एक पुतला हूँ, मैं अपनी खुद की भूत हूँ।"
उसको सारे बंधन व नियम टूटते हुए लगे। ऐसा लगा कि उसमें जहाँ वह चाहे वहाँ जाने की, जो चाहे वो करने की एक अज्ञात शक्ति व असीमित छूट है। इस भावना के साथ वो उस झोपड़ी से एक पागल स्त्री के जैसे हवा के एक झोंके की तरह निकली और बिना किसी भय, लज्जा या चिन्ता के वो उस अँधेरे मैदान में भागने लगी।
किन्तु चलते-चलते उसके पैरों में दर्द होने लगा व उसको कमजोरी महसूस होने लगी। मैदान का दूर दूर तक कोई अन्त दिखाई नहीं देता था और यहाँ वहाँ धान के खेत और पानी के गहरे तालाब दिखाई देते थे। सूर्योदय के बाद, धीरे धीरे उसको शीशम के पेड़ दिखाई पड़ने लगे और चिड़ियों के चहचहाने की आवाज सुनाई देने लगी थी। अब उसको बहुत डर लग रहा था। उसे तनिक भी आभास नहीं था कि वो कहाँ है व अब उसका दुनिया के लोगों से क्या सम्बन्ध होगा। सावन की उस रात, जब तक उस विशाल मैदान में अँधेरा था, तब तक वो निर्भीक होकर अपने में ही मस्त थी पर अब उजाला व मनुष्य की उपस्थिति उसको परेशान करने लगे। जैसे मनुष्यों को भूत प्रेतों से डर लगता है, वैसे ही भूत प्रेतों को भी मनष्यों से डर लगता है, ये दोनों नदी के दो अलग अलग किनारों पर रहने वाली दो भिन्न प्रजातियाँ हैं।
रास्ते में ऐसे किसी पागल स्त्री की तरह विचरते हुए, मिट्टी से सने हुए कपड़ों में व उसके अजीबोगरीब व्यवहार से कादम्बिनी किसी को भी डरा सकती थी। ऐसे में बच्चे तो शायद उसको देखकर दूर भाग जाते व दूर से ही उस पर पत्थर फेंकते। सौभाग्यवश, पहला व्यक्ति जिसने उसे इस स्थिति में देखा, एक सज्जन था।
उस व्यक्ति ने उसके पास जाकर पूछा, "माँ, ऐसा लगता है कि तुम किसी भद्र परिवार से सम्बन्ध रखती हो। ऐसी स्थिति में तुम इस रास्ते पर अकेले कहाँ जा रही हो?’
पहले तो कादम्बिनी ने उस व्यक्ति के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और उसकी ओर खाली निगाहों से घूरने लगी। उसको सब कुछ छूटा छूटा सा लग रहा था। उसको समझ में नहीं आ रहा था कि वो इस संसार में जीवित कैसे थी, कैसे एक राहगीर उससे प्रश्न पूछ रहा था व कैसे वो इस व्यक्ति को एक भद्र महिला लग रही थी।
उस सज्जन ने फिर पूछा, "माँ, मेरे साथ आओ, मैं तुम्हें तुम्हारे घर ले जाऊँगा। बताओ तुम्हारा घर कहाँ है?’
कादम्बिनी सोच में पड़ गई। वो अपनी ससुराल वापस जाने का सोच भी नहीं सकती थी और उसका कोई अपना पैतृक घर भी नहीं था कि तभी उसे अपनी बचपन की सहेली योगमाया का ध्यान आया। हालाँकि वो उससे बचपन के बाद नहीं मिली थी, उनमें बीच बीच में पत्राचार होता रहता था। कभी कभी उनमें इस बात पर जरूर प्रतियोगिता होती थी कि उसमें से कौन एक दूसरे को ज्यादा प्यार करता है। कादम्बिनी का कहना था कि वो योगमाया से ज्यादा किसी चीज को प्यार नहीं करती थी और योगमाया का कहना था कि कादम्बिनी उसके प्यार को ठीक से समझ नहीं पाती थी। पर उन दोनों को यह मालूम था कि अगर दुबारा मौका मिला तो दोनों एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगी। "मैं निशिंदपुर में श्रीपति चरण बाबू के घर जा रहीं हूँ।" कादम्बिनी ने उस सज्जन से कहा।
वो व्यक्ति कोलकाता जा रहा था। निशिंदपुर पास तो नहीं था पर वो उसके रास्ते से हट के नहीं था। उसने खुद कादम्बिनी को श्रीपति चरण बाबू के घर पहुँचाया।
प्रारम्भ में दोनों सहेलियों को एक दूसरे को पहचानने में परेशानी हुई पर जैसे ही उन्हें एक दूसरे में बचपन का रूप दिखा, उनकी आँखें चमक उठीं। योगमाया बोली, "मैंने कभी भी नहीं सोचा था कि मैं तुमको दुबारा देखूँगी। तुम यहाँ कैसे? तुम्हारे ससुराल ने क्या तुम्हें घर से निकाल दिया है?’
कादम्बिनी कुछ देर चुप रहने के बाद बोली, "भई, मुझसे मेरी ससुराल के बारे में मत पूछो। तुम मुझे अपने घर के एक कोने में एक नौकर की तरह आश्रय दे दो, मैं तुम्हारा हर काम करूँगी।"
योगमाया ने कहा, "अरे वाह, तुम मेरी नौकरानी कैसे हो सकती हो, तुम तो मेरी सहेली, मेरी बहन जैसी हो।" तभी श्रीपति बाबू कमरे में आये। कादम्बिनी उनकी ओर एक क्षण के लिये देखकर बिना सर ढके व बिना कोई आदरभाव दिखाये धीरे से कमरे से बाहर चली गई। योगमाया ये सोचकर कि कहीं श्रीपति बाबू उसकी सहेली के अभद्र व्यवहार से गुस्सा न हो जाएँ, उनसे माफी माँगने लगी। श्रीपति बाबू इतनी आसानी से मान गये कि उसको कुछ अजीब सा लगा।
हालाँकि कादम्बिनी ने अपनी सहेली के घर का काम सँभाल लिया था पर वो उसके साथ घनिष्ठ नहीं हो पाई, उनके बीच में मृत्यु की एक दीवार थी। यदि कोई व्यक्ति खुद पर संदेह करने लगता है या अपने बारे में ही सावधान रहता है तो वो किसी और के साथ घनिष्ठ नहीं हो सकता है। कादम्बिनी को ऐसा लगता था कि योगमाया, उसका घर व पति किसी और संसार के हैं। वो सोचती थी, "वे लोग प्यार, कर्तव्य व भावनाओं से परिपूर्ण एक संसार में रहते हैं और मैं एक खाली छाया हूँ। वे लोग जीवित संसार में हैं और मैं इस संसार से परे हूँ।"
ये सब देखकर योगमाया भी परेशान थी और उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अनिश्चितता के वातावरण में कविता, बहादुरी, या शिक्षा तो पनप सकते हैं किन्तु घरेलू माहौल नहीं और इसी कारण औरतें किसी भी रहस्य को दबा कर नहीं रख सकती हैं। इसलिये जिस चीज को वे समझ नहीं सकती हैं, या तो वे उस चीज से अपना नाता ही तोड़ लेती हैं व कोई सम्बन्ध नहीं रखती हैं या फिर वे उस चीज को किसी और ज्यादा उपयोगी चीज से बदल देती हैं। और यदि उनको कुछ भी समझ में नहीं आता है तो वे क्रोधित हो जाती हैं। जैसे जैसे कादम्बिनी का व्यवहार योगमाया की समझ से परे होने लगा, उतना ही योगमाया को उसके ऊपर इस बात पर गुस्सा आने लगा कि क्यों यह आफत उसके गले आन पड़ी है।
यहाँ पर एक और समस्या थी। कादम्बिनी खुद भी डरी हुई थी पर फिर भी वो अपने आप से भाग नहीं सकती थी। भूत प्रेत से डरने वाले लोग अंदर ही अंदर भयभीत हो जाते हैं क्योंकि वे भय के कारण को साक्षात देख नहीं सकते हैं। पर कादम्बिनी को किसी बाहरी चीज का डर थोड़े ही था, वो तो खुद अपने आप से ही डरी हुई थी। कभी कभी दिन की शांति में वो कमरे में अकेले बैठे हुए ही चिल्लाने लगती थी और शाम को लैंप की रोशनी में अपनी छाया को देखकर जोर जोर से कांपने लगती थी। घर का हर सदस्य उसके डर से चौकन्ना था। घर के नौकर, नौकरानियाँ व स्वयं योगमाया को सब जगह भूत नजर आते थे। तभी एक दिन आधी रात को कादम्बिनी अपने कमरे के दरवाजे पर आकर चिल्लाई, "दीदी, दीदी, मैं तुमसे विनती करती हूँ मुझे अकेला मत छोड़ो।
योगमाया को डर भी लग रहा था व क्रोध भी आ रहा था। उसका बस चलता तो उसी समय वो उसको घर से निकाल देती। पर दयालु-हृदय श्रीपति बाबू ने बड़े यत्न से कादम्बिनी को शांत कराया व बगल के कमरे में भेज दिया।
अगले दिन श्रीपति बाबू को अनपेक्षित रूप से फटकार मिली। योगमाया ने उन पर लांछन लगाते हुए कहा, "तो कितने अच्छे पुरुष है आप, एक औरत अपने पति का घर छोड़कर आपके घर में रहने लगती है, महीनों बाद भी वो जाने का नाम नहीं लेती है पर फिर भी आपने कभी तनिक शिकायत तक नहीं की। आप क्या सोचते हैं, मैं आप जैसे मर्दों को अच्छी तरह समझती हूँ।"
यह सच है कि औरत पुरुष की कमजोरी होती है और औरतें उनके ऊपर इस बात को लेकर ज्यादा आक्षेप लगा सकती हैं। यद्यपि वो यह कसम खाने को तैयार थे कि सुन्दर पर बेचारी कादम्बिनी के प्रति उनके मन में कोई खोट नहीं था फिर भी उनके व्यवहार से उल्टा ही प्रतीत होता था। कादम्बिनी के आने के समय उन्होंने अपने आप से कहा था, "हो सकता है कि इस निःसंतान विधवा के साथ उसके घर वालों ने अन्याय किया हो या क्रूरता भरा व्यवहार किया हो इसीलिये वो वहाँ से भागकर हमारे यहाँ शरण लेने आई है। चूँकि उसके माता पिता नहीं हैं इसलिये मैं उसको कैसे छोड़ सकता हूँ?" उन्होंने इस विषय पर और सवाल जबाब करना उचित नहीं समझा क्योंकि हो सकता है कि वो इस विषय पर पूछे सवालों से और परेशान न हो जाए।
पर चूँकि अब उनकी अपनी पत्नी ही उनके उदार व धैर्यवान व्यवहार की ओर लांछन लगा रही थी, उनको लगा कि अपने घर में शान्ति रखने के लिये कादम्बिनी के ससुराल वालों को उसके बार में बताना ही होगा। आखिरकार काफी सोचविचार के बाद वे इस निर्णय पर पहुँचे कि कादम्बिनी के ससुराल को पत्र लिखने के बजाय खुद ही रानीघाट जाकर वस्तुःस्थिति का पता करना ज्यादा उचित रहेगा।
श्रीपति बाबू के जाने के बाद योगमाया कादम्बिनी के पास जाकर बोली, "प्रिय, अब तुम्हारा यहाँ रहना उचित नहीं है। लोग क्या कहेंगे?"
कादम्बिनी ने योगमाया की तरफ देखकर कहा, "मेरा लोगों से कुछ लेना देना नहीं है।"
योगमाया थोड़ी सी हताश होकर चिड़चिड़ी आवाज में बोली, "हो सकता है कि तुम्हारा कोई लेना देना न हो लेकिन हमारा तो है। आखिर कब तक हम किसी और की विधवा को अपने घर में रख सकते हैं?’
कादम्बिनी ने कहा, "मेरे पति का घर कहाँ है?’
योगमाया ने सोचा, "उफ! ये औरत क्या बक रही है।’
कादम्बिनी धीरे से बोली, "मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ? क्या मैं संसार की हूँ? तुम सब हँसते हो, रोते हो, प्यार करते हो, तुम्हारे पास कई सारी चीजें हैं, मैं तो केवल देखती रहती हूँ। तुम सब मनुष्य हो, मैं तो केवल एक छाया हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मैं भगवान ने क्यों मुझे तुम लोगों के बीच डाल दिया है। तुम्हें ये चिन्ता है कि मैं तुम्हारा घर बरबाद कर दूँगी पर मुझे ये नहीं समझ में आता कि मेरा तुमसे सम्बन्ध क्या है। पर जब भगवान ने मेरे लिये कोई जगह नहीं छोड़ी है तो मैं तुम्हारे पास ही रहूँगी व तुम्हें परेशान करूँगी फिर चाहे तुम मुझे मार ही क्यों न डालो।"
उसकी आँखों व आवाज में कुछ ऐसा था कि योगमाया उसकी बात का शब्दार्थ न समझते हुए भी मतलब समझ गई और उसको कोई उत्तर देते न बना। न ही अब उसे कोई प्रश्न पूछते बना और दुखी व पराजित मुद्रा में वो कमरे के बाहर चली गई।
श्रीपति बाबू रानीघाट से रात के दस बजे के करीब लौटे। भारी बरसात से सब कुछ धुला धुला सा लगता था। बरसात की आवाज से ऐसा लगता था ये कभी बन्द नहीं होगी व रात का भी कोई अन्त नहीं होगा।
"क्या हुआ?" योगमाया ने पूछा।
"ये एक लम्बी कहानी है।" श्रीपति बाबू ने कहा। "मैं तुम्हें बाद में बताऊँगा?" उन्होंने अपने गीले कपड़े उतार कर खाना खाया व तम्बाकू पीने के बाद सोने चले गये। वे कुछ सोच में डूबे हुए लग रहे थे। योगमाया ने अब तक तो अपनी जिज्ञासा को दबा के रखा था पर बिस्तर पर पहुँचते ही उसने पूछा, "क्या पता लगा, बताइये मुझे?"
"तुमसे जरूर कोई गलती हुई है।" श्रीपति बाबू ने कहा।
योगमाया ये सुनकर थोड़ा सा नाराज हो गई। औरतें कभी गलतियाँ नहीं करती हैं और अगर वो करती भी हैं तो आदमियों के लिये उसका जिक्र न करना ही उचित है। बात को ऐसे ही जाने देना चाहिये।
योगमाया ने थोड़ा उग्र स्वर में पूछा, "किस बात में?’
श्रीपति बाबू ने कहा, "जिस औरत को तुमने घर में आश्रय दिया है वो तुम्हारी सहेली कादम्बिनी नहीं है?" एक पति के मुँह से इस प्रकार की बात निकलना झगड़े की बात हो सकती है।
"तो तुम्हारा कहना ये है कि मैं अपनी ही सहेली को नहीं जानती।" योगमाया बोली "क्या मुझे उसको पहचानने में तुम्हारा इन्तजार करना पड़ेगा, अजीब बात है?"
श्रीपति बाबू बोले, "ये बात नहीं है, मैं यह सबूत के आधार पर बोल रहा हूँ।" उन्हें इस बात के बारे में कोई संदेह नहीं था कि कादम्बिनी मर चुकी है।
"सुनिये, योगमाया बोली। "आपको पूरी बात का पता नहीं है। आपने जो भी जहाँ से भी सुना है सही नहीं है। वैसे भी आपसे जाने को किसने कहा था, अगर आपने एक पत्र लिख दिया होता तो पूरी बात का खुलासा हो गया होता?"
अपनी पत्नी के अविश्वास को देखकर श्रीपति बाबू ने सारे सबूतों को पूरी तरह पूरी तरह से समझाने का प्रयास किया किन्तु असफलता ही हाथ लगी। वे दोनों थोड़ी थोड़ी देर में बहस करने लगते थे। लेकिन दोनों ही इस बात पर सहमत हो गये कि कादम्बिनी को घर से तुरन्त निकाल देना चाहिये क्योंकि श्रीपति बाबू का यह विश्वास था कि उनकी अतिथि उन लोगों के साथ छल कर रही है और योगमाया का यह मानना था कि वो अपने घर से भाग कर आई है। पर बहस के दौरान उनमें से कोई भी अपनी बात से हटने को तैयार न था। वे जोर जोर से बोलने लगे? इससे अनजान कि कादम्बिनी बगल के कमरे में थी।
एक आवाज आई, "ये बहुत खराब बात है। जो भी हुआ मैंने अपने कानों से सुना था?"
दूसरी चिल्लाने की आवाज आई, "मैं ये कैसे मान लूँ,मैं उसको अपनी आखों से पहचान सकती हूँ?"
आखिरकार योगमाया बोली, "ठीक है? ये बताइये कि कादन्बिनी कब मरी थी?" वो सोच रही थी कि कादम्बिनी के लिखे हुए पत्रों की तारीखों से वो श्रीपति बाबू को गलत सिद्ध कर देगी। पर उसने पाया कि कादम्बिनी श्रीपति बाबू को बताई गई तारीख के ठीक एक दिन बाद उनके घर आई थी। योगमाया को अपना हृदय जोर से धड़कने हुआ लगने लगा व श्रीपति बाबू भी थोड़ा असहज महसूस कर रहे थे। तभी अचानक उनके कमरे का दरवाजा खुल गया व ठंडी हवा से उनके कमरे का लैंप बुझ गया। उनका कमरा ऊपर से नीचे तक बाहर के अँधेरे से भर गया। तभी कादम्बिनी उनके कमरे के अंदर आकर खड़ी हो गई। सुबह का करीब ढाई बज रहा था और बाहर मूसलाधार बरसात हो रही थी। "सखी, कादम्बिनी बोली, "मैं तुम्हारी कादम्बिनी ही हूँ पर अब मैं जीवित नहीं हूँ। मैं मृत हूँ?"
यह सुनकर योगमाया डर के मारे चिल्ला पड़ी व श्रीपति बाबू की भी जबान बंद हो गई। "पर ये बताओ कि मृत होने के अलावा मैंने तुम्हारा और कौन सा नुकसान किया है? यदि मेरे पास इस समय इस संसार में रहने के लिये कोई और जगह नहीं है तो मैं कहाँ जाऊँ?’ और तभी वो ऐसे चीखी जैसे कि बरसात की इस रात में वो भगवान को नींद से जगाना चाहती हो, "बताओ? कहाँ जाऊँ मैं?’ ऐसा कहने के बाद दोनों पति पत्नी को भौंचक्का छोड़कर कादम्बिनी या तो एक ठिये की खोज में या किसी और संसार की ओर चली गई।
ये कहना मुश्किल है कि कादम्बिनी रानीघाट कैसे पहुँची। पहले तो वो अपने को किसी को दिखाए बिना एक दिन तक एक खण्डहरनुमा मंदिर में बिना खाये पिये पड़ी रही। बरसात की इस शाम के समय, जब अँधेरा जल्दी हो जाता है व गांव के लोग तूफान के डर से अपने घरों में चले गये, कादम्बिनी सड़क पर फिर से प्रकट हुई। जैसे जैसे उसकी ससुराल पास आने लगी, उसका दिल जोरों से धड़कने लगा पर उसने सिर पर नौकरानियों की तरह लंबा सा घूंघट डाल लिया और दरबानों ने उसको अंदर जाने से नहीं रोका। बीच में, बरसात और तेज हो गई थी और हवा प्रचंड वेग से बह रही थी।
शारदाशंकर की पत्नी जो कि घर की मालकिन थी, उसकी विधवा जेठानी के साथ ताश खेल रही थी और बुखार से पीड़ित छोटा बच्चा शयनकक्ष में सो रहा था। कादम्बिनी सबकी नजर बचाकर शयनकक्ष में पहुँची। ये कहना असम्भव है कि वो ससुराल वापस क्यों आई थी। शायद उसको खुद इस बात का पता नहीं था पर शायद वो बच्चे को दोबारा देखना चाहती थी। इसके बाद उसको नहीं पता था कि वो कहाँ जाएगी या उसका क्या हाल होगा।
लैंप की रोशनी में उसने एक कमजोर और दुर्बल से छोटे से बच्चे को मुठ्ठी बाँध कर सोते हुए देखा। बच्चे को देखकर उसकी ममता की प्यास फिर से जाग उठी कि कैसे वो बच्चे को हर दुर्भाग्य या विपदा से बचाने के लिये उसको एक आखिरी बार अपनी छाती में भींच लेना चाहती थी। पर तभी उसने सोचा, "जब मैं यहाँ नहीं रहूँगी तो इसकी देखभाल कौन करेगा? इसकी माँ को तो सहेलियों का साथ, ताश खेलना, गप्पें मारना पसन्द है व वो इसको मेरी देखरेख में लम्बे समय के लिये भी छोड़कर खुश थी जिससे कि उसको इसके पालनपोषण के बारे में कभी कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी। अब इसकी मेरे जैसी देखभाल कौन करेगा?’ तभी उस बच्चे ने करवट बदलते हुए कहा आधी नींद में कहा, "काकी माँ, मुझे थोड़ा पानी दो, "उसने तुरन्त उत्तर दिया, "मेरे प्यारे बेटे, मेरे लाल, तुम अपनी काकी माँ को अभी तक नहीं भूले, "वो घड़े से तुरन्त पानी लेकर आई व उसको अपनी छाती से लगाकर पानी पिलाने लगी। जब तक वो बच्चा नींद में था, उसको अपनी काकी के हाथ से पानी पीने में जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि वह उसका आदी था। पर जैसे ही कादम्बिनी, जो कि अपनी ममता की प्यास को तृप्त कर रही थी, ने बच्चे को चूम कर दुबारा लिटाया, बच्चा नींद से जाग गया व उससे चिपक कर बोला, "काकी माँ, क्या तुम मर गई थीं?’
उसने कहा, "हाँ, मेरे बेटे।"
"तो तुम वापस कैसे आईं, तुम दोबारा तो नहीं मरोगी?’
जब तक कि वो कोई उत्तर दे, हंगामा मच गया क्योंकि एक नौकरानी जो अपने हाथ में एक कटोरा लेकर आई थी, चिल्लाते हुए बेहोश होकर गिर पड़ी। उसकी चीख सुनकर शारदाशंकर की पत्नी ताश फेंक कर तुरन्त दौड़ी दौड़ी आईं, कादम्बिनी तो कमरे में खड़ी एकदम जड़ हो गई थी व वो भागने या कुछ बोलने में भी असमर्थ थी। ये सब देखकर बच्चा भी डर गया। उसने सिसकते हुए कहा, "काकी माँ, आपको जाना चाहिये।"
कादम्बिनी को आज पहली बार लगा कि वो मरी नहीं थी। ये पुराना घर, घर की हर चीज, बच्चा, उसका प्यार, ये सब कुछ ही तो उसके लिये समान रूप से जीवित थे और उन सबके व कादम्बिनी के बीच अब कोई फासला न था। जब तक वो अपनी सहेली के घर में रही, वो अपने को मृत महसूस करती रही, ऐसा लगता रहा जैसे कि वो औरत जिसे उसकी सहेली जानती थी मर चुकी थी। पर अब उसने अपने भतीजे के कमरे में महसूस किया कि उसकी काकी माँ कभी मरी ही नहीं थी।
"दीदी, वो टूटे से स्वर में बोली, "आप मुझसे डर क्यों रही हैं, देखिये मैं जैसी थी वैसी ही हूँ।"
उसकी जेठानी अपने को सम्भाल न सकीं और गिर पड़ीं।
अपनी बहन से यह समाचार पाकर शारदाशंकर बाबू खुद अंदर गये। वो हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए बोले, "भाभी, आपका यह करना उचित नहीं है। सतीश हमारे परिवार का इकलौता बच्चा है, आप उसको नजर क्यों लगा रही हैं, क्या हम आपके लिये अजनबी हैं, जब से आप गई हैं, वो प्रतिदिन कमजोर होता चला गया, लगातार बीमार रहा और रात दिन काकी माँ काकी माँ पुकारता रहा है। पर अब जब आपने इस संसार से विदा ले ली है तो कृपया उससे अपने को मत जोड़िये, कृपया चली जाइये, हम आपकी अंत्येष्टि उचित रीतियों से कर देंगे।"
कादम्बिनी और न सह सकी। वो चीख कर बोली, "मैं मरी नहीं थी, मैं मरी नहीं थी, मैं बोलती हूँ। मैं आपको कैसे समझाऊँ कि मैं मरी नहीं थी। क्या आप देख नहीं सकते कि मैं जीवित हूँ।" यह कह कर उसने जमीन पर गिरे हुए पीतल के कटोरे को उठाकर अपने माथे पर मारा, चोट से खून बहने लगा। "देखिये, मैं जीवित हूँ।"
शारदाशंकर वहाँ एक मूर्ति की तरह खड़े रहे, छोटा बच्चा अपने पिता के लिये रोने लगा और दोनों औरतें जमीन पर विक्षिप्त पड़ी थीं। कादम्बिनी रोते हुए व "मैं मरी नहीं थी, मैं मरी नहीं थी, " कहते हुए कमरे से भागी और उसने सीढ़ियों से उतर कर घर के अंदर एक पानी की नाँद में डुबकी लगा दी। ऊपर की मंजिल से शारदाशंकर ने पानी के छपाके की आवाज सुनी।
उस रात पूरी रात बरसात हुई और सुबह होने तक जारी थी, यहाँ तक कि दोपहर को भी कोई राहत नहीं मिली। कादम्बिनी ने मर कर यह सिद्ध कर दिया कि वो मरी नहीं थी।