जब कॉलेज की पढ़ाई समाप्त हो गई, तब से इसी छत पर महीने में एक बार, हिंदू-हितैषी-सभा के अधिवेशन होते आ रहे हैं, इन दोनों मित्रों में एक उसका सभापति है और दूसरा उसका मंत्री है। सभापति का नाम गौरमोहन है। मित्र लोग उसे गोरा कहकर बुलाते हैं। अपने इर्द-गिर्द के लोगों से वह बिल्कुल भी मेल नहीं खाता। इस उपन्यास, 'गोरा' में एक आकर्षक प्रेम कथा के माध्यम से नई-पुरानी विचारधाराओं के संघर्ष को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इस तरह प्रस्तुत किया है कि समीक्षकों को इसे भारतीय साहित्य का गौरव ग्रंथ कहना पड़ा। "गोरा" उपन्यास में एक और पात्र हैं पानू बाबू – जो ब्राह्म समाज की सांप्रदायिकता को अपने कपटपूर्ण कार्य-व्यवहार से ही नहीं, धूर्तता से भी संकीर्ण और अनुदार बनाते हैं। यही कारण है कि ब्राह्म होते हुए भी सुचरिता इनसे दूर चली जाती है। अपनी कुटिल चालों से इन्होंने गोरा, विनय और सुचरिता – सबको खिन्न कर दिया था। उसका व्यक्तित्व एवं चरित्र अपने ढंग का अनूठा है। वह एक गोरा-चिट्टा, ऊंचा-लम्बा, हट्टा-कट्टा एवं निधड़क युवक है। स्वाभिमान और अड़ियलपन उसमें मानों कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वह बाहर से यद्यपि कट्टर हिन्दू प्रतीत होता है, परन्तु भीतर से वह जीव मात्र से प्यार एवं सहानुभूति रखने वाला युवक है।
4 फ़ॉलोअर्स
10 किताबें