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खुश हो लें

20 मार्च 2022

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20 मार्च 2022 
   रविवार 
समय- 05:15

मेरी प्यारी सखी,
      सुबह से ही भाग दौड़, साफ सफाई का दौर चलते चलते अब जाकर बैठने का थोड़ा समय मिला है। कई बार काम की अधिकता के कारण मन में खिन्नता का भाव आ जाता है। आज भी कुछ उसी प्रकार के भाव लिए बैठी तो अचानक बेटी ने कहा क्या इतना उदास सा मुखड़ा बना रखा है आज तो अंतरराष्ट्रीय प्रसन्नता दिवस है खुश हो जाओ। 
      मुझे अचानक याद आया जब भी पापा उदास होते हैं। मां आकर कहती है हंसो हंसो मुंह लटकाके मत बैठो। हंसी ही तो है जो कभी भी, कहीं भी, किसी को भी दी जा सकती है और ली भी जा सकती है। अचानक से मां की वह बात याद आते ही मेरे मुख पर भी हंसी छा गई।
                 आज अधिक पाने की आस में लोगों का सुख चैन स्वाहा हो रहा है।
                            लखनवी अंदाज कहानी भी तो कुछ इसी प्रकार की है जिसमें सिर्फ अपनी रईसी दिखाने के लिए खीरों को ना खाकर बाहर सेंड देता है। शायद हम भी तो दिखावा ही करने पर आतुर हो चले हैं। मैं भी क्या लेकर बैठ गई। हमारी जिंदगी से नमक की कमी आ गई है तभी तो सब कुछ भी स्वाद हो चुका है। जवानी में करते रहते हैं अब बुढ़ापे में हंसने की कोशिश करते हैं। पार्क में जाकर जोर-जोर से ठहाके लगाते हैं चाहे हंसी आए या ना आए। लेकिन स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए लाफिंग थेरेपी के अंतर्गत जोर-जोर से हंसने की कोशिश करते हैं या शायद एक दूसरे को देख कर एक दूसरे पर ही हंसते हैं।
                                             हंसता तो है समाज एक दूसरे के दुखों को देख कर। सुखों को देखकर तो जलन होती है। कहां खुश हो पाता है कोई? एक दूसरे के दुःख में भागीदार बनने कहां आते हैं कोई। सिर्फ दु:खों का मजा लेने की कोशिश करने में लगे रहते हैं। 
                                   चलो कोई ना, आज इसी बात के सहारे ही जोर जोर से ठहाके लगा ले कि आज अंतरराष्ट्रीय खुशहाली दिवस है। या शायद इस दिन को बनाया ही इसलिए गया है कि लोग अपनी मायूसी छोड़ कर कम से कम 365 दिन में आज के दिन तो हंस ले ही। 
प्रेम पुजारी का वह गाना भी तो है ना
ग़म पे धूल डालो
कहकहा लगालो

काँटों की डगरिया ज़िंदगानी है
तुम जो मुस्कुरा दो राजधानी है
ये होंठ सूखे सूखे
ये बाल रूखे रूखे
बोलो छाई उदासी क्यों यारों
यारों नीलाम करो सुस्ती
हम से उधार ले लो मस्ती
अरे हस्ती का नाम तन्दुरुस्ती
अरे यारों नीलाम करो सुस्ती।।
                       वैसे होली वाले दिन तो बहुत ठहाके लगाए थे, एक दूसरे पर रंग गुलाल डालते हुए। हंसी तो और ज्यादा तब आई जब शैंपू लगाने के बाद भी गुलाल समझा जाने वाला रंग निकला और अच्छे से मुख मंडल पर अपनी छाप छोड़ गया। पतिदेव भी यही समझ कर बैठे थे कि गुलाल लगा हुआ है आराम से उतर जाएगा। लेकिन असल और नकल अपनी पहचान दिखा ही गए। 
                       बचपन में हम लोग होली खेलते हुए एक दूसरे को पानी के टैंक में डाल देते थे। होली खेलकर जब घर वापस आते मम्मी देख कर पूछती होली खेली भी है?  मैं कहती हां खेली थी लेकिन दीक्षा के घर के टैंक में हमें गिरा देने के बाद हम सभी सखियां बिल्कुल साफ-सुथरी होकर आई है। फिर भी मम्मी का कहना होता कि एक बार दोबारा नहा लो। 
           लेकिन आज त्यौहार में वह आनंद और मस्ती की थोड़ी कमी दिखाई तो अवश्य देती है। और शायद कोरोना के बाद से तो...।
               इस बार कोरोना में मारे गए कई लोगों के घर हम लोग रंग लगाने गए। हमारे यहां कहा जाता है कि जिसके घर मौत हो चुकी है उसके घर आगे के त्यौहार मनाने के लिए, उसे रंग लगाया जाता है ताकि वे आगे से त्यौहार मना सके। कोरोना के समय हमारे यहां कई लोगों के घरों में मौत हो चुकी थी। रंग लगाते हुए उनके आंखों के अश्रु दल गिर रहे थे। 
     सांत्वना देते हुए बस यही कह पाए कि कोई भी जरूरत हो तो कह देना। अंतर्मन से हम भी जानते थे कि किसी की कमी कोई पूरी नहीं कर सकता।
      सखी फिर मिलते हैं इसी आशा के साथ...


 लेखिका 
    पापिया


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