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विचारों में परिपक्वता

2 मार्च 2022

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2 मार्च 2022
  बुधवार
समय-11:00(सुबह)

मेरी प्यारी सखी,
      आज भी कितने ही वाद विवादों के बीच निष्कर्ष यही निकलता है कि नारियों का स्थान आज श्रेष्ठ हो चुका है। चाहे वह शिक्षा-दीक्षा हो या व्यापार या इसी प्रकार की चाहे सुविधाएं हो। हर जगह महिलाओं को आगे किया जाता है।
               लेकिन शायद स्थिति इससे अलग है। आज भी महिलाओं को एक वस्तु के रूप में ही देखा जाता है। चाहे परिवार हो, चाहे सामाजिक स्थल। जहां भी हम नजरें दौड़ाएंगे वही हमें गाहे-बगाहे यही स्थिति देखने को मिलेगी।
                    उत्तरी भारत में जहां लड़कियों को आज भी देवी तुल्य माना जाता है, उनके चरण छुए जाते हैं। लेकिन स्थिति ऐसी नहीं है जैसी दिखती है। 
          समाज में आज जब वही बेटी बहू बनकर जाती है तो उस पर नाना प्रकार के लांछन, नाना प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप लगाने में भी समाज पीछे नहीं हटता। उसके लिए सिर्फ एक ही रास्ता एक ही जगह सभी को दिखाई देती है रसोईघर। 
                साथ ही कहा जाता है लड़कियों का काम ही है रसोई संभालना। चाहे वह घर की रानी हो या कामकाजी महिला। चाहे एक ही जगह पति पत्नी काम करते हो। लेकिन पति वापस लौट कर सोफे पर बैठा है। वहीं महिला रसोई में खाना बनाने के लिए पहुंच जाती है। 
                कहां है समानता? इस प्रश्न का कौन जवाब देने के लिए तैयार है! शायद कोई नहीं। लड़कियों के लिए एक टेंग लगा दिया जाता है लक्ष्मी है घर को संभालती है। घर की गृहणी है। क्या लड़कों का दायित्व नहीं रसोई में मदद करें लेकिन...
                हरियाणा में जो महिलाएं ही सारा दिन खटती रहती है और पुरुष खाट पर बैठकर या तो बीड़ी पीते हैं या अनेकों प्रकार की फरमाइश करते हैं।
                                      कुछ सीमा तक पूर्वी भारत या दक्षिणी भारत में महिलाओं की स्थिति में फिर भी सुधार है। जहां महिलाओं को देवी तो नहीं माना जाता, लेकिन लड़कों के समकक्ष मानने की स्थिति देखी जाती है। लड़कियां भी लड़कों के समान बड़ों के चरण छूती है। वहीं उत्तरी भारत में लड़कियों के चरण छुए जाते हैं, उसे देवी माना जाता है और उस देवी की कोख में ही हत्या कर दी जाती है।
                                       कैसी मानसिकता है यह? नारी सशक्तिकरण के नाम पर ऐसा विचार ही घृणित है। पुरुष प्रधान समाज होने की स्थिति में एक सीमा तक आज भी महिलाओं को दबाया जाता है। 
                       शायद साक्षरता के बलबूते पर स्थिति में सुधार हो सकता है। धीरे-धीरे इस प्रकार के विचार की परिकल्पना पूर्ण होती हुई देखी जा सकती है या शायद हर लड़के की मां को यह समझाना होगा कि वह लड़की का उसी प्रकार सम्मान करें, जैसे वह अपनी मां का करता है। बचपन से ही जब तक इस प्रकार के विचार लड़कों में प्रवाहित नहीं होंगे तब तक विचारों की प्रभावधारा सकारात्मक कैसे हो सकती है?
                       हर विचार को व्यवहारिक होना आवश्यक है। तभी यह समाज परिवर्तित हो सकता है।

 लेखिका
   पापिया
                                                 

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