कुंडली के समस्त दोषों को हरने से सबसे उत्तम मार्गो में एक है -- पंचमहायज्ञ ।।
आइये, हम पांच महायज्ञ पर विचार करते है ....
मनुस्मृति ' ( ३/६८ ) में लिखा है- । --
"पंच सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः । कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन् ॥ ”
अर्थात् गृहस्थी में चूल्हा , चक्की , झाड़ू , ओखली और घड़ा , यह पांच स्थान हिंसा के हैं । ( पराशर ० )
यह पांच स्थान हिंसा के क्यो है ? क्यो की इन पांचों स्थानों में जाने या अनजाने में जीव हत्या होती ही है ।। उससे पापरूपी कर्मफल की प्राप्ति होती है ।। जिसका भुगतान हमे भिन्न भिन्न प्रकार के कष्ठ सहकर करना पड़ता है ....
चूल्हा-चक्की-झाड़ू-ओखली-घड़ा इनको काम में लाने वाला गृहस्थ पाप से बंधता है । इसलिए उन पापों का निवृत्ति के लिए नित्य क्रमश : निम्नलिखित पांच यज्ञ करने का विधान किया गया है- ( पारा ०२/१४ ) -
( १ ) ब्रह्मयज्ञ
( २ ) पितृयज्ञ
( ३ ) देवयज्ञ
( ४ ) भूतज्ञ
और
( ५ ) मनुष्य यज्ञ
● ब्रह्मयज्ञ -- श्रीगीताजी/ वेद/रामायण/महाभारत/पुराणपढ़ना आदि शास्त्र पढ़ना- पढ़ाना, ब्रह्मगायत्री जप, मन्त्र जप, नामजप ब्रह्मयज्ञ कहलाता है ।।
●पितृयज्ञ - माता-पिता की सेवा, समय पर श्राद्ध-तर्पणादि -पितृयज्ञ कहलाता है ।।
●देवयज्ञ - हवन आदि करना "दैवयज्ञ" कहलाता है ।
● भूतयज्ञ - बलिवैश्व करना (गौ ग्रास देना, चींटियों, मछलियों, कछुवों को दाना डालना, कुत्ते व कौव्वे को भोजन देना भूतयज्ञ कहलाता है ।।
●और अतिथि- पूजन ' मनुष्ययज्ञ ' है - - “
अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् |
होमो दैवो बलिभ तो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥ ” ( मनु ० ३।७० ) ।
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
अर्थात् यज्ञ के द्वारा तुम लोग देवताओं की उन्नति करो और वे तुम्हारी उन्नति करेंगे , इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परमकल्याण को प्राप्त होगे ।
( यहां भगवान मनुमहाराज ने स्पष्ठ ही कह दिया है, अगर हम देवताओं की उन्नति करेंगे, तो हम भी उन्नति को प्राप्त होंगे ।। हम देवताओं को प्रसन्न रखेंगे, देवता हमे प्रसन्न रखेगे ।।। हम अगर अपने आसुरी व्यवहार से असुरो ने अनुकूल कार्य करेंगे, तो हमे भी आसुरीपना यानि कष्ठ ही प्राप्त होगा )
इसके अतिरिक्त ' मनुस्मृति ' ( ३।७६ ) में बतलाया गया है कि अग्नि में डाली हुई आहुति सूर्य को प्राप्त होती है , सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न एवं अन्न से प्रजा होती है ।।
'अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवृ ष्टेरन्नं ततः प्रजाः ॥
और भी
अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद् भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥ ' ( गीता ३।१४ )
अर्थात् अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं , अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है , वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है । इस प्रकार देवयज्ञरूपी नित्य कर्म में सम्पूर्ण प्राणियों का व्यापक हित निहित है । ‘
भूतयज्ञ ' में बलि - वैश्वदेव ' का विधान किया गया है , जिससे कीट , पक्षी , पशु आदि की तृप्ति एवं सेवा होती है ।
'मनुष्ययज्ञ अतिथि- सेवा - रूप है । अतिथि सेवा करने का बड़ा ही महत्त्व कहा गया है । जिसके आने की कोई तिथि निश्चित न हो , वह ' अतिथि ' कहा जाता है । यदि कोई अतिथि किसी के घर से असन्तुष्ट होकर लौट जाता है , तो उसका सब संचित पुण्य नष्ट हो जाता है '
आशाप्रतीक्षे संगतं सूनृतां
चेष्टापूर्ते पुत्रपशूश्च सर्वान् ।
एतद् वृते पुरुषस्याल्पमेधसो
यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ||
अर्थात् जिसके घर में ब्राह्मण अतिथि बिना भोजन किये रहता है , उस पुरुष की आशा , प्रतीक्षा , संगत एवं प्रिय वाणी से प्राप्त होने वाले समस्त इष्टापूर्त्ता फल तथा पुत्र , पशु आदि नष्ट हो जाते हैं ।
अथर्ववेद ' के अतिथिसूक्त में ( ६/५८ ) कहा गया है कि ' एते वै प्रियाश्चाप्रियाश्च स्वर्गलोकं गमयन्ति यदतिथयः | सर्वो वा एष जग्धपाप्मा यस्यान्नमश्नन्ति ||
अर्थात् अतिथिप्रिय होना चाहिए , यजमान को स्वर्ग पहुंचा देता है और भोजन कराने पर वह उसका पाप नष्ट कर - देता है।।
इस पंचमहायज्ञ में अग्नि को दी हुई आहुति के बारे में कहा गया है, की यह आहुति भगवान सूर्य को प्राप्त होती है । भगवान सूर्य हम सबके पितृ भी है ।। भगवान सूर्य ही चन्द्रमा अर्थात मन को शक्ति प्रदान करते है ।। भगवान सूर्य ही समस्त ग्रहों के राजा है ।। भगवान सूर्य की प्रसन्नता ही राहुजनित पितृदोष का नाश है ।।